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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 38
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
इ॒तश्च॑मा॒मुत॑श्चावतां य॒मे इ॑व॒ यत॑माने॒ यदै॒तम्। प्र वां॑ भर॒न्मानु॑षा देव॒यन्त॒आ सी॑दतां॒ स्वमु॑ लो॒कं विदा॑ने ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒त: । च॒ । मा॒ । अ॒मुत॑: । च॒ । अ॒व॒ता॒म् । य॒मे इ॒वेति॑ य॒मेऽइ॑व । यत॑माने॒ इति॑ । यत् । ऐ॒तम् । प्र । वा॒म् । भ॒र॒न् । मानु॑षा: । दे॒व॒ऽयन्त॑: । आ । सी॒द॒ता॒म् । स्वम् । ऊं॒ इति॑ । लो॒कम् । विदा॑ने॒ इति॑ ॥३.३८॥
स्वर रहित मन्त्र
इतश्चमामुतश्चावतां यमे इव यतमाने यदैतम्। प्र वां भरन्मानुषा देवयन्तआ सीदतां स्वमु लोकं विदाने ॥
स्वर रहित पद पाठइत: । च । मा । अमुत: । च । अवताम् । यमे इवेति यमेऽइव । यतमाने इति । यत् । ऐतम् । प्र । वाम् । भरन् । मानुषा: । देवऽयन्त: । आ । सीदताम् । स्वम् । ऊं इति । लोकम् । विदाने इति ॥३.३८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 38
विषय - यमे इव यतमाने
पदार्थ -
१. प्रभु गृहस्थ पति-पत्नी से कहते हैं कि आप दोनों (इतः च अमुता च) = इधर से और उधर से-इस लोक से और परलोक से-इहलोक के अभ्युदय व परलोक के निःश्रेयस के द्वारा-(मा अवताम्) = मुझे प्रीणित करनेवाले होओ। अभ्युदय और निःश्रेयस को सिद्ध करते हुए आप मेरे प्रिय बनो। यह होगा तभी (यदा) = जबकि (यमे इव) = एक युगल की भाँति-बिलकुल मिलकर चलनेवालों की भाँति (यतमाने) = घर को स्वर्ग बनाने के लिए यत्नशील होते हुए तुम दोनों (एतम्) = गति करते हो। पति-पत्नी की क्रियाएँ बिलकुल मिलकर हों-वे एक-दूसरे के पूरक बनें। परस्पर का विरोध तो घर को नरक ही बना देता है। २.(वाम्) = आप दोनों को (मानुषा) = मानवमात्र का हित करनेवाले (देवयन्तः) = दिव्यगुणों को अपनाने की कामनावाले पुरुष (प्रभरन्त) = उत्कृष्ट भावनाओं से भरनेवाले हों। इनसे आपको उत्कृष्ट प्रेरणा प्रास हो। आप दोनों विदाने-स्वाध्याय द्वारा ज्ञान की प्रवृत्तिवाले होते हुए (उ) = निश्चय से (स्वं लोक आसीदताम्) = अपने घर में आसीन होओ। इधर-उधर कल्बों में न जाकर घर को ही अपना प्रिय स्थान बनाओ।
भावार्थ - गृहस्थ में पति-पत्नी एक युगल की भाँति मिलकर घर को स्वर्ग बनाने का प्रयत्न करते हुए, अभ्युदय और निःश्रेयस को सिद्ध करते हुए प्रभु के प्रिय बने। घरों में मानवहित में प्रवृत्त देवपुरुषों से प्रेरणा प्राप्त करते हुए अतिरिक्त समय को घरों को अच्छा बनाने में लगाएँ।
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