अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 5
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-१०७
वा॑वृधा॒नः शव॑सा॒ भूर्यो॑जाः॒ शत्रु॑र्दा॒साय॑ भि॒यसं॑ दधाति। अव्य॑नच्च व्य॒नच्च॒ सस्नि॒ सं ते॑ नवन्त॒ प्रभृ॑ता॒ मदे॑षु ॥
स्वर सहित पद पाठव॒वृ॒धा॒न: । शव॑सा । भूरि॑ऽओजा: । शत्रु॑: । दा॒साय॑ । भि॒यस॑म् । द॒धा॒ति॒ ॥ अवि॑ऽअनत् । च॒ । वि॒ऽअ॒नत् । च॒ । सस्नि॑ । सम् । ते॒ । न॒व॒न्त॒ । प्रभृ॑ता । मदे॑षु ॥१०७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
वावृधानः शवसा भूर्योजाः शत्रुर्दासाय भियसं दधाति। अव्यनच्च व्यनच्च सस्नि सं ते नवन्त प्रभृता मदेषु ॥
स्वर रहित पद पाठववृधान: । शवसा । भूरिऽओजा: । शत्रु: । दासाय । भियसम् । दधाति ॥ अविऽअनत् । च । विऽअनत् । च । सस्नि । सम् । ते । नवन्त । प्रभृता । मदेषु ॥१०७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 5
विषय - 'शक्ति-पुज' प्रभु
पदार्थ -
१. वे प्रभु (शवसा वावृधान:) = बल से खूब बढ़े हुए हैं। (भूरि ओजा:) = अतिशयित ओजवाले हैं। (शत्रुः) = हमारी वासनाओं का शातन करनेवाले हैं। (दासाय) = [दसु उपक्षये] हमारी शक्तियों को क्षीण करनेवाले काम, क्रोध के लिए (भियसं दधाति) = भय को धारण करते हैं। जहाँ भी महादेव के नाम का उच्चारण होता हो वहाँ कामदेव आने से भयभीत होते ही हैं। २. वे प्रभु (अवयनत्) = श्वास [प्राण] न लेनेवाले स्थावर पदार्थों को (च) = तथा (व्यनत्) = विशेषरूप से प्राणों को धारण करनेवाले जंगम प्राणियों को (सस्नि) = शुद्ध करनेवाले हैं। (ते) = आपके (मदेषु) = आनन्दों में (प्रभृता) = धारण किये हुए सब प्राणी (संनवन्त) = म्यक् स्तवन करते हैं [नु स्तुती], अथवा आपकी ओर गतिवाले होते हैं [नव गती]।
भावार्थ - प्रभु अनन्त शक्तिवाले हैं। हमारे शत्रुओं को भयभीत करके हमसे दूर करते हैं। सबका शोधन करते हैं। उपासक प्रभु-प्राप्ति के आनन्द में निरन्तर प्रभु का स्तवन करते हैं।
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