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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
आ वो॑ वहन्तु॒ सप्त॑यो रघु॒ष्यदो॑ रघु॒पत्वा॑नः॒ प्र जि॑गात बा॒हुभिः॑। सी॑दता ब॒र्हिरु॒रु वः॒ सद॑स्कृ॒तं मा॒दय॑ध्वं मरुतो॒ मध्वो॒ अन्ध॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । व॒: । व॒ह॒न्तु॒ । सप्त॒य: । र॒घु॒ऽस्यद॑: । र॒घु॒ऽपत्वा॑न: । प्र । जि॒गा॒त॒ । बा॒हुऽभि॑: ॥ सीद॑त । आ । ब॒हि॑: । उ॒रु । व॒: । सद॑: ।कृ॒तम् । मा॒दय॑ध्वम् । म॒रु॒त॒: । मध्व॑: । अन्ध॑स: ॥१३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वो वहन्तु सप्तयो रघुष्यदो रघुपत्वानः प्र जिगात बाहुभिः। सीदता बर्हिरुरु वः सदस्कृतं मादयध्वं मरुतो मध्वो अन्धसः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । व: । वहन्तु । सप्तय: । रघुऽस्यद: । रघुऽपत्वान: । प्र । जिगात । बाहुऽभि: ॥ सीदत । आ । बहि: । उरु । व: । सद: ।कृतम् । मादयध्वम् । मरुत: । मध्व: । अन्धस: ॥१३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
विषय - गोतम
पदार्थ -
१. हे (मरुतः) = प्राणो! (व:) = तुम्हें (रघुष्यदः) = शीघ्र गतिवाले अपने-अपने कार्यों को स्फूर्ति से करनेवाले (सप्तयः) = इन्द्रियाश्व (आवहन्तु) = हमें प्राप्त कराएँ। वस्तुत: इन्द्रियों का अपने कार्यों में लगे रहना-आलस्य में न पड़ना प्राणशक्ति का वर्धन करता है। हे (रघुपत्वान:) = शीघ्र गतिवाले जीवन को गतिमय बनानेवाले प्राणो! आप (बाहुभिः) = [बाह प्रयत्ने] विविध प्रयत्नों के साथ हमें (प्रजिगात) = प्राप्त होओ। प्राणशक्ति के होने पर मनुष्य सतत गतिवाला-आलस्यशून्य होता है। २. हे प्राणो! (बर्हिः सीदत) = हृदयान्तरिक्ष में आसीन होओ, हृदय को वस्तुत: तुम्हीं ने वासनाओं के उद्बर्हण से 'बर्हि' बनाना है। (वः) = तुम्हारे द्वारा (सदः) = वह हृदयासन उरु (कृतम्) = विशाल बनाया गया है। प्राणसाधना से हृदय विशाल बनता है। हे (मरुतः) = प्राणो! (मध्वः) = जीवन को मधुर बनानेवाले (अन्धसः) = सोम के द्वारा-शरीर में सोम-रक्षण के द्वारा हमारे जीवन को (मादयध्वम्) = आनन्दयुक्त करो।
भावार्थ - इन्द्रियों के अपने-अपने कर्मों में लगे रहने से प्राणशक्ति बढ़ती है। प्राणशक्ति की वृद्धि हमें आलस्यशून्य बनाती है। प्राणसाधना से हृदय पवित्र व विशाल बनता है। यह प्राण साधना सोम-रक्षण द्वारा जीवन को आनन्दमय बनाती है। इसप्रकार यह साधक 'गोतम' बनता है।
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