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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 38

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 38/ मन्त्र 5
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-३८

    इन्द्र॒ इद्धर्योः॒ सचा॒ संमि॑श्ल॒ आ व॑चो॒युजा॑। इन्द्रो॑ व॒ज्री हि॑र॒ण्ययः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । इत् । हर्यो॑: । सचा॑ । सम्ऽमि॑श्‍ल । आ । व॒च॒:ऽयुजा॑ ॥ इन्द्र॑: । व॒ज्री॒ । हि॒र॒ण्यय॑: ॥३८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र इद्धर्योः सचा संमिश्ल आ वचोयुजा। इन्द्रो वज्री हिरण्ययः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । इत् । हर्यो: । सचा । सम्ऽमिश्‍ल । आ । वच:ऽयुजा ॥ इन्द्र: । वज्री । हिरण्यय: ॥३८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 38; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (इत) = निश्चय से (हर्योः) = इन इन्द्रियाश्वों का (संमिश्ल:) = हमारे साथ मिलानेबाला है। ये ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप (अश्व सचा) = परस्पर मेलवाले होते हैं और (वचोयुजा) = शास्त्रवचनों के अनुसार कार्यों में प्रवृत्त होनेवाले होते हैं। ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियाँ मिलकर कार्य करती हैं और शास्त्रवचनों का उल्लंघन न करती हुई अपने कार्यों में प्रवृत्त होती हैं । २. (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (वज्री) = वज्रहस्त है-क्रियाशील है। क्रियाशीलता ही वस्तुत: इनका वन है। हिरण्यय:-ये ज्योतिर्मय हैं-ज्ञानज्योति से दीत है।

    भावार्थ - प्रभु-प्रदत्त कर्मेन्द्रियों हमें वनी बनाएँ और ज्ञानेन्द्रियाँ हिरण्यय बनानेवाली हों।

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