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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 21/ मन्त्र 10
    सूक्त - वसिष्ठ देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शान्ति सूक्त

    ये पर्व॑ताः॒ सोम॑पृष्ठा॒ आप॑ उत्तान॒शीव॑रीः। वातः॑ प॒र्जन्य॒ आद॒ग्निस्ते क्र॒व्याद॑मशीशमन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । पर्व॑ता: । सोम॑ऽपृष्ठा: । आप॑: । उ॒त्ता॒न॒ऽशीव॑री: । वात॑: । प॒र्जन्य॑: । आत् । अ॒ग्नि: । ते । क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । अ॒शी॒श॒म॒न् ॥२१.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये पर्वताः सोमपृष्ठा आप उत्तानशीवरीः। वातः पर्जन्य आदग्निस्ते क्रव्यादमशीशमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । पर्वता: । सोमऽपृष्ठा: । आप: । उत्तानऽशीवरी: । वात: । पर्जन्य: । आत् । अग्नि: । ते । क्रव्यऽअदम् । अशीशमन् ॥२१.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 21; मन्त्र » 10

    पदार्थ -

    १. (ये) = जो (सोमपृष्ठा:) = सोम आदि औषधियों को अपने पृष्ठ पर धारण करनेवाले (पर्वता:) = पर्वत हैं, (ते) = वे (क्रव्यादम्) = इस मांसभक्षक कामाग्नि को (अशीशमन्) = शान्त करते हैं। पर्वतों का शान्त जलवायु तथा पर्वतों की शीतवीर्य सोम आदि लताएँ वीर्य-रक्षण के लिए अनुकूलता उत्पन्न करती हैं। इसप्रकार (उत्तानशीवरी: आप:) = जल उत्तानशयन स्वभाव हैं, अर्थात् सामान्यतः ये शरीर में शक्ति की ऊर्ध्वगति का कारण होते हैं। कटिप्रदेश का जल से स्नान इस कार्य में बड़ा सहायक है। २. (वात:) = वायु, (पर्जन्य:) = बादल (आत्) = और अब (अग्नि) = अग्निहोत्र-ये सब इस कामाग्नि को शान्त करते हैं। वायुसेवन तथा प्राणायाम द्वारा वायु का आराधन तो वीर्य की ऊर्ध्वगति का कारण होता ही है। वृष्टिजल में सान व वृष्टिजल का पान भी वीर्यरक्षण की अनुकूलता को उत्पन्न करता है। अग्निहोत्र आदि करते हुए अग्नि का शरीर के साथ सम्पर्क भी त्वचा की कोमलता को दूर करके वीर्यरक्षण का साधक हो जाता है। वायु, बादल, अग्नि-इन सबके सम्पर्क में कामाग्नि की शान्ति में सहायता मिलती है।

    भावार्थ -

    'पर्वतों की शीतवीर्य ओषधियों का प्रयोग, जल से कटि-सान, वायु-सेवन, वृष्टिजल में स्नान व उसका पान तथा अग्नि के ताप से त्वचा की कोमलता का निराकरण' ये सब साधन कामाग्नि को शान्त करते हैं।

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