अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - दक्षिणदिक्, इन्द्रः, तिरश्चिराजी, पितरगणः
छन्दः - पञ्चपदा ककुम्मत्यष्टिः
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
दक्षि॑णा॒ दिगिन्द्रो॑ऽधिपति॒स्तिर॑श्चिराजी रक्षि॒ता पि॒तर॒ इष॑वः। तेभ्यो॒ नमो॑ऽधिपतिभ्यो॒ नमो॑ रक्षि॒तृभ्यो॒ नम॒ इषु॑भ्यो॒ नम॑ एभ्यो अस्तु। यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मस्तं वो॒ जम्भे॑ दध्मः ॥
स्वर सहित पद पाठदक्षि॑णा । दिक् । इन्द्र॑: । अधि॑ऽपति: । तिर॑श्चिऽराजि: । र॒क्षि॒ता । पि॒तर॑: । इष॑व: । तेभ्य॑: । नम॑: । अधि॑पतिऽभ्य: । नम॑: । र॒क्षि॒तृऽभ्य॑: । नम॑: । इषु॑ऽभ्य: । नम॑: । ए॒भ्य॒: । अ॒स्तु॒ ।य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । तम् । व॒: । जम्भे॑ । द॒ध्म: ॥२७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ॥
स्वर रहित पद पाठदक्षिणा । दिक् । इन्द्र: । अधिऽपति: । तिरश्चिऽराजि: । रक्षिता । पितर: । इषव: । तेभ्य: । नम: । अधिपतिऽभ्य: । नम: । रक्षितृऽभ्य: । नम: । इषुऽभ्य: । नम: । एभ्य: । अस्तु ।य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । तम् । व: । जम्भे । दध्म: ॥२७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 27; मन्त्र » 2
विषय - दक्षिणा दिक्
पदार्थ -
१. (दक्षिणा दिक्) = दाक्षिण्य की दिशा है। जो भी व्यक्ति 'प्राची' का पाठ पढ़कर निरन्तर आगे बढ़ता चलेगा, वह उस-उस कार्य में अवश्य निपुण बनेगा ही। इस नैपुण्य के कारण इसका ऐश्वर्य वृद्धि को प्राप्त होगा, अत: इस दिशा का (अधिपतिः) = स्वामी (इन्द्रः) = परमैश्वर्याशाली है। २. इस नैपुण्य की (रक्षिता) = रक्षक (तिरश्चिराजी) = पशु-पक्षियों की पंक्ति हैं। प्रभु ने इनमें वासनात्मकरूप [instinct] से दाक्षिण्य रक्खा है। मधुमक्षिका किस अद्भुत कुशलता से फूलों से रस लेती है और शहद का निर्माण करती है। चील किस कुशलता से आकाश में पंख हिलाये बिना ही उड़ती जाती है। सिंह का नदी को सीधा तैरना कितना विस्मयकारक है। ३. इस नैपुण्य के लिए (इषव:) = प्रेरणा देनेवाले (पितरः) = माता-पिता हैं। ये अपने सन्तानों को निरन्तर निपुण बनने की प्रेरणा देते रहते हैं। [शेष पूर्ववत्]।
भावार्थ -
हम दक्षिण दिशा से नैपुण्य प्राप्त करने का संकेत ग्रहण करें। नैपण्य हमें ऐश्वर्यशाली बनाएगा। प्रभु ने इस नैपुण्य को पशु-पक्षियों में रक्खा है। माता-पिता सदा इस नैपुण्य के लिए सन्तानों को प्रेरणा देते रहते हैं।
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