अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
सूक्त - विश्वामित्रः
देवता - मधुलौषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रोगोपशमन सूक्त
द्वे च॑ मे विंश॒तिश्च॑ मेऽपव॒क्तार॑ ओषधे। ऋत॑जात॒ ऋता॑वरि॒ मधु॑ मे मधु॒ला क॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठद्वे । इति॑ । च॒ । मे॒ । विं॒श॒ति: । च॒ । मे॒ ।। अ॒प॒ऽव॒क्तार॑: । ओ॒ष॒धे॒ । ऋत॑ऽजाते । ऋत॑ऽवारि । मधु॑ । मे॒ । म॒धु॒ला । क॒र॒:॥१५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वे च मे विंशतिश्च मेऽपवक्तार ओषधे। ऋतजात ऋतावरि मधु मे मधुला करः ॥
स्वर रहित पद पाठद्वे । इति । च । मे । विंशति: । च । मे ।। अपऽवक्तार: । ओषधे । ऋतऽजाते । ऋतऽवारि । मधु । मे । मधुला । कर:॥१५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
विषय - बाईस
पदार्थ -
१. (द्वे च मे विंशतिः च मे) = भौतिक जीवन में 'ऋत' [Regularity] तथा आध्यात्म-जीवन में सत्य और दसों प्राण व दसों इन्द्रियाँ मुझसे (अपवक्तार:) = सब दोषों को दूर करें, मेरे जीवन में दोर्षों को न आने दे। २. हे (ओषधे) = दोषदाहक शक्ति को धारण करनेवाली! (ऋतजात:) = पूर्ण सत्य प्रभु से उत्पन्न ! (ऋतावरि)-सत्यज्ञानवाली बेदवाणि! तू (मधुला) = माधुर्य को लानेवाली है, (मे मधु कर:) = मेरे जीवन को मधुर बना। -
भावार्थ -
वेदवाणी से मेरा जीवन मधुर बने। ऋत और सत्य तथा दसों इन्द्रियों व दसों प्राण मुझसे बुराई को दूर रखें।
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