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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 111

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 111/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वृषभः छन्दः - पराबृहती त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    इन्द्र॑स्य कु॒क्षिर॑सि सोम॒धान॑ आ॒त्मा दे॒वाना॑मु॒त मानु॑षाणाम्। इ॒ह प्र॒जा ज॑नय॒ यास्त॑ आ॒सु या अ॒न्यत्रे॒ह तास्ते॑ रमन्ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य । कु॒क्षि: । अ॒सि॒ । सो॒म॒ऽधान॑: । आ॒त्मा । दे॒वाना॑म् । उ॒त । मानु॑षाणाम्। इ॒ह । प्र॒ऽजा: । ज॒न॒य॒ । या: । ते॒ । आ॒सु । या: । अ॒न्यत्र॑ । इ॒ह । ता: । ते॒ । र॒म॒न्ता॒म् ॥११६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य कुक्षिरसि सोमधान आत्मा देवानामुत मानुषाणाम्। इह प्रजा जनय यास्त आसु या अन्यत्रेह तास्ते रमन्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य । कुक्षि: । असि । सोमऽधान: । आत्मा । देवानाम् । उत । मानुषाणाम्। इह । प्रऽजा: । जनय । या: । ते । आसु । या: । अन्यत्र । इह । ता: । ते । रमन्ताम् ॥११६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 111; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. अपने जठर को ही सम्बोधित करता हुआ यह 'ब्रह्मा' कहता है कि तू (इन्द्रस्य) = एक जितेन्द्रिय पुरुष का (कुक्षिः असि) = जठर [उदर] है, इसीलिए तू (सोमधान:) = सोम का आधार है, तुझमें सोम सुरक्षितरूप में रहता है। अथवा तू सौम्य [वानस्पतिक] भोजनों को ही अपने में स्थापित करनेवाला है, कभी मांसाहार नहीं करता। तू (देवानां उत मानुषाणाम्) = देवों का तथा विचारशील पुरुषों का (आत्मा) = शरीर है। तुझमें दिव्य गुणों व मानवता का निवास है। मांसाहार मनुष्य को दिव्य गुणों व मानवता से दूर ले-जाता है। २. प्रभु कहते हैं कि हे सोम का रक्षण करनेवाले पुरुष! (इह) = यहाँ गृहस्थ में (प्रजा: जनय) = सन्तानों को जन्म दे। (याः) = जो (ते) = तेरी प्रजाएँ (आसु) = इन्हीं जन्मभूमियों में निवास करती हैं, (याः अन्यत्र) = और जो अन्यत्र दूर देशों में हैं, (ता:) = वे (ते) = तेरी प्रजाएँ (इह) = इस जीवन में (रमन्ताम्) = सुखी हों।

    भावार्थ -

    हम जितेन्द्रिय बनकर सोम का रक्षण करें और सौम्य भोजनों को ही खाएँ। इसप्रकार हम दिव्य गुणों व मानवता को अपने में स्थान दें। इस जीवन में उत्तम सन्तानों को जन्म दें। ये सन्तान यहाँ हों या कहीं दूर-वे आनन्द में रहें।

    सोम का रक्षण करता हुआ पाप का निवारण करनेवाला 'वरुण' अगले सूक्त का ऋषि है -

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