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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 32/ मन्त्र 20
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    भूरि॑दा॒ भूरि॑ देहि नो॒ मा द॒भ्रं भूर्या भ॑र। भूरि॒ घेदि॑न्द्र दित्ससि ॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भूरि॑ऽदाः । भूरि॑ । दे॒हि॒ । नः॒ । मा । द॒भ्रम् । भूरि॑ । आ । भ॒र॒ । भूरि॑ । घ॒ । इत् । इ॒न्द्र॒ । दि॒त्स॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूरिदा भूरि देहि नो मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि ॥२०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भूरिऽदाः। भूरि। देहि। नः। मा। दभ्रम्। भूरि। आ। भर। भूरि। घ। इत्। इन्द्र। दित्ससि ॥२०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 32; मन्त्र » 20
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    पदार्थ = हे इन्द्र - परमैश्वर्ययुक्त प्रभो ! आप ( भूरिदा ) = बहुत देनेवाले हो ( नः ) = हमें ( भूरि देहि ) बहुत दो ( मा दभ्रम् ) = थोड़ा नहीं, ( भूरि आभर ) = बहुत लाओ। ( इत् ) = निश्चित ( भूरिघा ) = सदा बहुत ( दित्ससि ) = देने की इच्छा करते हो । 

    भावार्थ -

    भावार्थ = हे सर्व ऐश्वर्य के स्वामी परमात्मन्! आप अपने सेवकों को बहुत ही धनादि पदार्थ देते हो, हमें भी बहुत दो, थोड़ा नहीं, क्योंकि आपका स्वभाव ही बहुत देने का है, सदा बहुत देने की इच्छा करते हो। भगवन् ! धनादि पदार्थों को प्राप्त होकर, उनको अच्छे कामों में हम लगावें, बुरे कामों में नहीं, ऐसी ही आपकी प्रेरणा हो। हम धर्मात्मा और धनी ज्ञानी बनकर आपके ज्ञान और धर्म के फैलानेवाले बनें, जिससे कि हम सबका कल्याण हो ।

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