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ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 28
ऋषिः - वत्सः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडार्षीगायत्री
स्वरः - षड्जः
उ॒प॒ह्व॒रे गि॑री॒णां सं॑ग॒थे च॑ न॒दीना॑म् । धि॒या विप्रो॑ अजायत ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒ऽह्व॒रे । गि॒री॒णाम् । स॒म्ऽग॒थे । च॒ । न॒दीना॑म् । धि॒या । विप्रः॑ । अ॒जा॒य॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उपह्वरे गिरीणां संगथे च नदीनाम् । धिया विप्रो अजायत ॥
स्वर रहित पद पाठउपऽह्वरे । गिरीणाम् । सम्ऽगथे । च । नदीनाम् । धिया । विप्रः । अजायत ॥ ८.६.२८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 28
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
पदार्थ -
पदार्थ = ( गिरीणाम् ) = पर्वतों की ( उपह्वरे ) = गुफाओं में ( नदीनां संगमे च ) = और नदियों के संगम पर ( धिया ) = ध्यान करने से ( विप्रः अजायत ) = मेधावी व ब्राह्मण हो जाता है।
भावार्थ -
भावार्थ = मोक्षार्थी पुरुष को चाहिये कि वह एकान्त देश में जैसे पर्वतों की गुफा में व नदियों के संगम पर बैठ कर परमात्मा का ध्यान करे और एकान्त देश में ही वेदों के पवित्र मन्त्रों का विचार करे । तब ही वह विप्र और ब्राह्मण कहलाने के योग्य है । ब्राह्मण शब्द का भी यही अर्थ है कि ब्रह्म जो शब्द ब्रह्म वेद है, इसके पठन और विचार आदि से ब्राह्मण होता है, और ब्रह्म अविनाशी सर्वत्र व्यापक परमात्मा का जो ज्ञानी भक्त है वही ब्राह्मण कहलाने योग्य है । इसी ज्ञानी को विप्र भी कहते हैं, ऐसे वेदवेत्ता प्रभु के अनन्य भक्त ही ब्राह्मण होने चाहिये, न कि रसोई बनानेवाले बनियों की व्यापार वृत्ति व नौकरी करनेवाले ।
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