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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 5
    ऋषिः - शिवसङ्कल्प ऋषिः देवता - मनो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    यस्मि॒न्नृचः॒ साम॒ यजू॑षि॒ यस्मि॒न् प्रति॑ष्ठिता रथना॒भावि॑वा॒राः।यस्मिँ॑श्चि॒त्तꣳ सर्व॒मोतं॑ प्र॒जानां॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मि॑न्। ऋचः॑। साम॑। यजू॑षि। यस्मि॑न्। प्रति॑ष्ठि॑ता। प्रति॑स्थ॒तेति॒ प्रति॑ऽस्थिता। र॒थ॒ना॒भावि॒वेति॑ रथना॒भौऽइ॑व। अ॒राः ॥ यस्मि॑न्। चि॒त्तम्। सर्व॑म्। ओत॒मित्याऽउ॑तम्। प्र॒जाना॒मिति॑ प्र॒ऽजाना॑म्। तत्। मे॒। मनः॑। शि॒वस॑ङ्कल्प॒मिति॑ शि॒वऽस॑ङ्कल्पम्। अ॒स्तु ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मिन्नृचः साम यजूँषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभविवाराः। यस्मिँश्चित्तँ सर्वमोतम्प्रजानान्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मिन्। ऋचः। साम। यजूषि। यस्मिन्। प्रतिष्ठिता। प्रतिस्थतेति प्रतिऽस्थिता। रथनाभाविवेति रथनाभौऽइव। अराः॥ यस्मिन्। चित्तम्। सर्वम्। ओतमित्याऽउतम्। प्रजानामिति प्रऽजानाम्। तत्। मे। मनः। शिवसङ्कल्पमिति शिवऽसङ्कल्पम्। अस्तु॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 5
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    पदार्थ -

    पदार्थ = ( रथनाभौ अराः इव ) = रथ के चक्र की नाभि में जैसे अरे लगे रहते हैं, इसी प्रकार  ( यस्मिन् ) = जिस मन में  ( ऋचः ) = ऋग्वेद, ( साम ) = सामवेद, ( यजूंषि ) = यजुर्वेद, ( प्रतिष्ठिताः ) = सब ओर से स्थित हैं अर्थात् चार वेदों के मन्त्र विद्वान् के मन में संस्कार रूप से स्थित रहते हैं, ( यस्मिन् ) = जिस मन में  ( प्रजानाम् ) = सब प्राणियों के  ( सर्वम् चित्तम् ) = सब पदार्थों के ज्ञान  ( ओतम् ) = सूत्र में मणियों के समान  ओत -प्रोत हैं, अर्थात् पिरोये हुए हैं  ( तत् मे मनः ) = वह मेरा मन  ( शिवसङ्कल्पम् अस्तु ) = शुभ वेद विचार और परमात्मा के ध्यानादिकों के सङ्कल्पवाला हो । 
     

    भावार्थ -

    भावार्थ = हे जिज्ञासु पुरुषो! हम सब लोगों को योग्य है कि जिस मन के स्वस्थ और शुद्ध रहने से, सत्संग, वेदविचार और ईश्वरध्यानादि हो सकते हैं, अशुद्ध अस्वस्थ मन से नहीं ऐसे मन की अशुद्ध भावना को हटाकर वेदविचार और ईश्वर - ध्यान में लगावें, जिससे हमारा कल्याण हो ।

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