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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 17
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    हि॒र॒ण्मये॑न॒ पात्रे॑ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुखम्।यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पु॑रुषः॒ सोऽसाव॒हम्। ओ३म् खं ब्रह्म॑॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒र॒ण्मये॑न॒। पात्रे॑ण। स॒त्यस्य॑। अपि॑हित॒मित्यपि॑ऽहितम्। मुख॑म् ॥ यः। अ॒सौ। आ॒दि॒त्ये। पुरु॑षः। सः। अ॒सौ। अ॒हम्। ओ३म्। खम्। ब्रह्म॑ ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । यो सावादित्ये पुरुषः सो सावहम् । ओ३म् खं ब्रह्म ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्मयेन। पात्रेण। सत्यस्य। अपिहितमित्यपिऽहितम्। मुखम्॥ यः। असौ। आदित्ये। पुरुषः। सः। असौ। अहम्। ओ३म्। खम्। ब्रह्म॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 17
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    पदार्थ -


    पदार्थ = ( सत्यस्य ) = सत्यस्वरूप परमात्मा वा ज्ञान रूप मोक्ष का  ( मुखम् ) = द्वार ( हिरण्मयेन ) = सुवर्णादि  ( पात्रेण ) = दरिद्रता रूपी दुःख से रक्षक धन सम्पत्ति से ( अपिहितम् ) = ढका हुआ है  ( यः असौ ) = जो यह  ( आदित्ये ) = प्रलय में सब को संहार करनेवाला जो ईश्वर, उसमें जो  ( पुरुषः ) = जीव है  ( सः असो अहम् ) = सो वह मैं हूं।  ( ओ३म् खम् ब्रह्म ) = सब से उत्तम नाम परमेश्वर का ओ३म् है, वह  ( खम् ) = आकाश के सदृश व्यापक और  ( ब्रह्म ) = सब से बड़ा है । 

    भावार्थ -

    पदार्थ = जो पुरुष धन को प्राप्त हो कर धन को शुभ कामों में लगाते हैं, पाप कर्मों में कभी नहीं लगाते वे पुरुष धन्यवाद के योग्य हैं । प्रायः सुवर्णादि धन से प्रमादी लोग, पाप करके मोक्ष मार्ग को प्राप्त नहीं हो सकते। इसलिए मन्त्र में कहा है कि सुवर्णादि धन से मुक्ति का द्वार ढका हुआ है, इसीलिए उपनिषद में कहा है—"तत्त्वं पूषन् अपावृणु" हे सबके पालन पोषण कर्त्ता प्रभो ! उस विघ्न को दूर कर ताकि मैं मुक्ति का पात्र बन सकूं।"ओ३म्" यह परमात्मा का सब से उत्तम नाम है। इस नाम की उत्तमता वेद, उपनिषद्, दर्शन और गीता आदि स्मृतियों में वर्णन की गई है। इसमें वेदों को माननेवालों को कभी सन्देह नहीं हो सकता । उसको (खम्) आकाश की न्याईं व्यापक और सबसे बड़ा होने से ब्रह्म वेद ने कहा है।

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