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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 184
ऋषिः - उलो वातायनः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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वा꣢त꣣ आ꣡ वा꣢तु भेष꣣ज꣢ꣳ श꣣म्भु꣡ म꣢यो꣣भु꣡ नो꣢ हृ꣣दे꣢ । प्र꣢ न꣣ आ꣡यू꣢ꣳषि तारिषत् ॥१८४॥

स्वर सहित पद पाठ

वा꣡तः꣢꣯ । आ । वा꣢तु । भेषज꣢म् । शं꣣म्भु꣢ । श꣣म् । भु꣢ । म꣣योभु꣢ । म꣣यः । भु꣢ । नः꣣ । हृदे꣢ । प्र । नः꣣ । आ꣡यूँ꣢꣯षि । ता꣣रिषत् ॥१८४॥


स्वर रहित मन्त्र

वात आ वातु भेषजꣳ शम्भु मयोभु नो हृदे । प्र न आयूꣳषि तारिषत् ॥१८४॥


स्वर रहित पद पाठ

वातः । आ । वातु । भेषजम् । शंम्भु । शम् । भु । मयोभु । मयः । भु । नः । हृदे । प्र । नः । आयूँषि । तारिषत् ॥१८४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 184
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
Acknowledgment

पदार्थ -

शब्दार्थ = हे इन्द्र परमात्मन्! ( न: ) = हमारे  ( हृदे ) = हृदय के लिए  ( शम्भु ) = रोगनिवारक  ( मयोभु ) = सुखदायक  ( भेषजम् ) = औषध को  ( वातः ) = वायु  ( आवातु ) = प्राप्त करावे और  ( न: )= हमारी  ( आयूंषि ) = आयु को  ( प्रतारिषत् ) = विशेषकर बढ़ावे । 

भावार्थ -

भावार्थ = हे दयामय जगदीश ! आपकी कृपा से ही वायु की शुद्धि द्वारा और औषध के सेवन से बल, नीरोगता प्राप्त होकर आयु की वृद्धि और सुख की प्राप्ती होती है ।

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