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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 203
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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न꣡ कि꣢ इन्द्र꣣ त्व꣡दुत्त꣢꣯रं꣣ न꣡ ज्यायो꣢꣯ अस्ति वृत्रहन् । न꣢ क्ये꣣वं꣢꣫ यथा꣣ त्व꣢म् ॥२०३॥

स्वर सहित पद पाठ

न꣢ । कि꣣ । इन्द्र । त्व꣢त् । उ꣡त्त꣢꣯रम् । न । ज्या꣡यः꣢꣯ । अ꣣स्ति । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । न꣢ । कि꣣ । एव꣢म् । य꣡था꣢꣯ । त्वम् ॥२०३॥


स्वर रहित मन्त्र

न कि इन्द्र त्वदुत्तरं न ज्यायो अस्ति वृत्रहन् । न क्येवं यथा त्वम् ॥२०३॥


स्वर रहित पद पाठ

न । कि । इन्द्र । त्वत् । उत्तरम् । न । ज्यायः । अस्ति । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । न । कि । एवम् । यथा । त्वम् ॥२०३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 203
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
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पदार्थ -

शब्दार्थ = हे इन्द्र परमेश्वर ! ( त्वत् ) = आपसे  ( उत्तरं न कि ) = कोई उत्तम नहीं, ( न ज्यायः ) = न आपसे कोई बड़ा  ( अस्ति ) = है  ( वृत्रहन् ) = हे मेघनाशक सूर्य के तुल्य अविद्यादि दोषनाशक प्रभो ! संसारभर में भी दूसरा कोई नहीं ।

भावार्थ -

भावार्थ = हे देव! सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आप प्रभु के बनाये हुए हैं और उन ब्रह्माण्डों में रहनेवाले समस्त प्राणी, आप जगन्नियन्ता की आज्ञा में वर्त्तमान हैं, आपकी आज्ञा को जड़ व चेतन कोई नहीं उल्लंघन कर सकता, इसलिए आपके बराबर भी कोई नहीं तो आपसे श्रेष्ठ व बड़ा कहाँ से होगा ? सब ब्रह्माण्डों के और उनमें रहनेवाले प्राणिमात्र के पालक, रक्षक, सुखदायक भी आप सदा सुखी रहते हैं ।

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