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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 651
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
उ꣡पा꣢स्मै गायता नरः꣣ प꣡व꣢माना꣣ये꣡न्द꣢वे । अ꣣भि꣢ दे꣣वा꣡ꣳ इय꣢꣯क्षते ॥६५१॥
स्वर सहित पद पाठउ꣡प꣢꣯ । अ꣣स्मै । गायत । नरः । प꣡व꣢꣯मानाय । इ꣡न्द꣢꣯वे । अ꣣भि꣢ । दे꣣वा꣢न् । इ꣡य꣢꣯क्षते ॥६५१॥
स्वर रहित मन्त्र
उपास्मै गायता नरः पवमानायेन्दवे । अभि देवाꣳ इयक्षते ॥६५१॥
स्वर रहित पद पाठ
उप । अस्मै । गायत । नरः । पवमानाय । इन्दवे । अभि । देवान् । इयक्षते ॥६५१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 651
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
शब्दार्थ = ( नरः ) = हे मनुष्यो ! ( अस्मै पवमानाय ) = इस पवित्र करनेवाले ( इन्दवे ) = परमेश्वर ( देवान् अभि इयक्षते ) = विद्वानों को लक्ष्य करके, अपना यजन करना चाहते हुए के लिए ( उपगायत ) = उपगान करो।
भावार्थ -
भावार्थ = हे प्रभो! जैसे कोई धर्मात्मा दयालु पिता, अपने पुत्र के लिए, अनेक उत्तम वस्तुओं का संग्रह करके, मन में चाहता है कि मेरा पुत्र योग्य बन जाए, तब मैं इसको उत्तम वस्तुओं को देकर सुखी करूँ। ऐसे ही आप पतित पावन परम दयालु जगत्पिता भी चाहते हैं कि यह मेरे पुत्र, धर्मात्मा होकर मेरा ही पूजन करें, तब मैं अपने प्यारे इन पुत्रों को अपना यथार्थ ज्ञान देकर, मोक्षादि अनन्त सुख का भागी बनाऊँ ।
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