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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 776
ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
1

त्व꣡ꣳ स꣢मु꣣द्रि꣡या꣢ अ꣣पो꣢ऽग्रि꣣यो꣡ वाच꣢꣯ ई꣣र꣡य꣢न् । प꣡व꣢स्व विश्वचर्षणे ॥७७६॥

स्वर सहित पद पाठ

त्वम् । स꣣मुद्रि꣡याः꣢ । स꣣म् । उद्रि꣡याः꣢ । अ꣣पः꣢ । अ꣣ग्रि꣢यः । वा꣡चः꣢꣯ । ई꣣र꣡य꣢न् । प꣡व꣢꣯स्व । वि꣣श्वचर्षणे । विश्व । चर्षणे ॥७७६॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वꣳ समुद्रिया अपोऽग्रियो वाच ईरयन् । पवस्व विश्वचर्षणे ॥७७६॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । समुद्रियाः । सम् । उद्रियाः । अपः । अग्रियः । वाचः । ईरयन् । पवस्व । विश्वचर्षणे । विश्व । चर्षणे ॥७७६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 776
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

शब्दार्थ = ( विश्वचर्षणे ) = हे सर्वसाक्षिन्  ( अग्रियः ) = मुख्य  ( त्वम् ) = आप  ( समुद्रियाः ) = आकाशस्थ मेघ के  ( अपः ) = जलों और  ( वाचः ) = वेद-वाणियों को  ( ईरयन् ) = प्रेरित करते हैं, वह आप  ( पवस्व ) = हमें पवित्र कीजिये ।

भावार्थ -

भावार्थ = हे सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमन् जगदीश ! आप सबके पूज्य और सबके अग्रणी हैं। आप आकाश में स्थित बादलों के प्रेरक हैं। अपनी इच्छा से ही जहां-तहाँ वर्षा करते हैं। पवित्र वेदवाणी को आपने ही हमारे कल्याण के लिए प्रकट किया है । आप कृपा करें कि हम सब मनुष्यों के हृदय में उस वेदवाणी का प्रकाश हो । उसी में श्रद्धा हो, उसी से हमारा जीवन पवित्र हो ।

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