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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 17
    ऋषिः - देवावात ऋषिः देवता - यजमानो देवता छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    सोमस्य॑ त्वा द्यु॒म्नेना॒भिषि॑ञ्चाम्य॒ग्नेर्भ्राज॑सा॒ सूर्य॑स्य॒ वर्च॒सेन्द्र॑स्येन्द्रि॒येण॑। क्ष॒त्राणां॑ क्ष॒त्रप॑तिरे॒ध्यति॑ दि॒द्यून् पा॑हि॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोम॑स्य। त्वा॒। द्यु॒म्नेन॑। अ॒भि। सि॒ञ्चा॒मि॒। अ॒ग्नेः। भ्राज॑सा। सूर्य॑स्य। वर्च॑सा। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒येण॑। क्ष॒त्राणा॑म्। क्ष॒त्रप॑ति॒रिति॑ क्ष॒त्रऽप॑तिः। ए॒धि॒। अति॑। दि॒द्यून्। पा॒हि॒ ॥१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमस्य त्वा द्युम्नेनाभिषिञ्चाम्यग्नेर्भ्राजसा सूर्यस्य वर्चसेन्द्रस्येन्दिण क्षत्राणाङ्क्षत्रपतिरेध्यति दिद्यून्पाहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सोमस्य। त्वा। द्युम्नेन। अभि। सिञ्चामि। अग्नेः। भ्राजसा। सूर्यस्य। वर्चसा। इन्द्रस्य। इन्द्रियेण। क्षत्राणाम्। क्षत्रपतिरिति क्षत्रऽपतिः। एधि। अति। दिद्यून्। पाहि॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 17
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    भावार्थ -

    हे राजन ! वीर पुरुष ! ( त्वा) तुझको (सोमस्य ) सोम, सर्वप्रेरक सर्वश्रेष्ठ राजपद के योग्य ( द्युम्नेन ) यश और ऐश्वर्य से ( : ) अग्नि या अग्रणी नेता के ( भ्राजसा ) तेज से और ( सूर्यस्य वर्चसा ) सूर्य के तेज से और ( इन्द्रस्य इन्द्रियेण ) इन्द्र, विद्युत् या वायु के बल से (त्वा अभिपिञ्चामि ) तेरा अभिषेक करता हूं । हे अभिषिक्त राजन् ! तू ( क्षत्राणाम् ) वीर्यवान् क्षत्रियों, राजाओं का ( क्षत्रपति एधि क्षत्रपति राजाधिराज होकर रह । . ( . दिधून ) प्रजा के नाश करनेवाली सब विपत्तियों को ( अति) पार करके प्रजाओं को ( पाहि ) रक्षा कर । अथवा ( दिद्यून ) विद्या और धर्म के प्रकाश करनेवाले व्यवहारों और विद्वानों का ( अति पाहि ) सब कष्टों से पार करके भी रक्षा कर अथवा ( दिद्यून् ) बाण आदि शस्रत्रों की खूब ( पाहि ) रक्षा कर । उन पर पर्याप्त प्रतिबन्ध रख जिससे वे परस्पर हिंसा का कारण न हों ॥ शत० ५ । ४ । २ । २ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    क्षत्रपतिर्देवता । आर्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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