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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 19
    ऋषिः - देवावात ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - विराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    प्र पर्व॑तस्य वृष॒भस्य॑ पृ॒ष्ठान्नाव॑श्चरन्ति स्व॒सिच॑ऽइया॒नाः। ताऽआव॑वृत्रन्नध॒रागुद॑क्ता॒ऽअहिं॑ बु॒ध्न्यमनु॒ रीय॑माणाः। विष्णो॑र्वि॒क्रम॑णमसि॒ विष्णो॒र्विक्रा॑न्तमसि॒ विष्णोः॑ क्रा॒न्तम॑सि॒॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र। पर्व॑तस्य। वृ॒ष॒भस्य॑। पृ॒ष्ठात्। नावः॑। च॒र॒न्ति॒। स्व॒सिच॒ इति॑ स्व॒ऽसिचः॑। इया॒नाः। ताः। आ। अ॒व॒वृ॒त्र॒न्। अ॒ध॒राक्। उद॑क्ता॒ इत्युत्ऽअ॑क्ताः। अहि॑म्। बु॒ध्न्य᳖म्। अनु॑। रीय॑माणाः। विष्णोः॑। वि॒क्रम॑ण॒मिति॑ वि॒ऽक्रम॑णम्। अ॒सि॒। विष्णोः॑। विक्रा॑न्त॒मिति॒ विऽक्रा॑न्तम्। अ॒सि॒। विष्णोः॑। क्रा॒न्तम्। अ॒सि॒ ॥१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र पर्वतस्य वृषभस्य पृष्ठान्नावश्चरन्ति स्वसिचऽइयानाः । ताऽआववृत्रन्नधरागुदक्ता अहिम्बुध्न्यमनु रीयमाणाः । विष्णोर्विकर्मणमसि विष्णोर्विक्रान्तमसि विष्णोः क्रान्तमसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। पर्वतस्य। वृषभस्य। पृष्ठात्। नावः। चरन्ति। स्वसिच इति स्वऽसिचः। इयानाः। ताः। आ। अववृत्रन्। अधराक्। उदक्ता इत्युत्ऽअक्ताः। अहिम्। बुध्न्यम्। अनु। रीयमाणाः। विष्णोः। विक्रमणमिति विऽक्रमणम्। असि। विष्णोः। विक्रान्तमिति विऽक्रान्तम्। असि। विष्णोः। क्रान्तम्। असि॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 19
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    भावार्थ -

    जिस प्रकार ( पर्वतस्य पृष्ठात् ) पर्वत या मेघ के पृष्ठ से ( इयानाः ) निकलनेहारी ( नावः ) जल धाराएं बहती हैं। उसी प्रकार ( वृषभस्य) नरश्रेष्ठ राजा के पीठ पर से भी ( इयाना: ) जाती हुई (स्वसिचः शरीर का सेचन करनेवाली ( नाव: ) जलधाराएं अभिषेक काल में ( चरन्ति ) बहें । ( ताः ) वे ( अधराक् उदक् ) नीचे और ऊपर सर्वत्र ( बुध्न्यम् ) सबके आश्रय में स्थित ( अहम् ) अहन्तव्य,वीर पुरुष को पर्वत की जलधाराएं जिस प्रकार उसके मूल भाग को घेरती हैं उसी प्रकार (रीयमाणाः ) घेरती हुई ( ता: ) वे ( आववृत्रन् ) उसको घेरें या प्राप्त करें | शत० ५ । ४ । २ । ५, ६ ॥ राजा प्रजा पक्ष में - ( नाव : ) स्तुति करनेवाली प्रजाएं (स्वसिचः ) स्व अर्थात् धन से राजा को सेचन वृद्धि करनेवाली (पर्वतस्य) पर्वत के समान एवं ( वृषभस्य ) वृषभ के समान बलवान् अथवा मेघ के समान सब के काम्य सुखों के वर्षक अति दानशील पुरुष के ( पृष्ठात्) पीठ से, उसके आश्रय लेकर ( इयानाः ) सर्वत्र गमन करती हुई ( चरन्ति ) विचरण करती है । ( ताः ) वे समस्त प्रजाएं अपने राजा को ( बुध्न्यम् ) आश्रय- भूत सबके अहन्ता पालक का ( अनु रीयमाणाः ) अनुगमन करती हुई उसको (अधराक् ) नीचे से और ( उदक् ) ऊपर से ( आववृन्नन्) व्याप्त होकर रहती हैं । उसको घेरे रहती हैं । हे पृथिवी तू (विष्णोः क्रमणम् असि ) व्यापक राजशक्ति का विक्रम करने का स्थान है । हे अन्तरिक्ष ! शासकगण ! तू ( विष्णोः ) वायु के समान बलशाली राजा का ( विक्रान्तम् असि ) नाना प्रकार के पराक्रमों का स्थान है । हे स्वः लोक ! राज्यपद ! तु आदित्य के समान ( विष्णोः ) राजा के पराक्रम का ( कान्तम् असि ) स्थान है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    देववात ऋषिः । विष्णुर्देवता । विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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