यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 47
ऋषिः - त्रित ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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ऋ॒तꣳ स॒त्यमृ॒तꣳ स॒त्यम॒ग्निं पु॑री॒ष्यमङ्गिर॒स्वद्भ॑रामः। ओष॑धयः॒ प्रति॑मोदध्वम॒ग्निमे॒तꣳ शि॒वमा॒यन्त॑म॒भ्यत्र॑ यु॒ष्माः। व्यस्य॒न् विश्वा॒ऽअनि॑रा॒ऽअमी॑वा नि॒षीद॑न्नो॒ऽअप॑ दुर्म॒तिं ज॑हि॥४७॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तम्। स॒त्यम्। ऋ॒तम्। स॒त्यम्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। भ॒रा॒मः॒। ओष॑धयः। प्रति॑। मो॒द॒ध्व॒म्। अ॒ग्निम्। ए॒तम्। शि॒वम्। आ॒यन्त॒मित्या॒ऽयन्त॑म्। अ॒भि। अत्र॑। यु॒ष्माः। व्यस्य॒न्निति॑ वि॒ऽअस्य॑न्। विश्वाः॑। अनि॑राः। अमी॑वाः। नि॒षीद॑न्। नि॒सीद॒न्निति॑ नि॒ऽसीद॑न्। नः॒। अप॑। दु॒र्म॒तिमिति॑ दुःऽम॒तिम्। ज॒हि॒ ॥४७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतँ सत्यमृतँ सत्यमम्ग्निम्पुरीष्यमङ्गिरस्वद्भरामः । ओषधयः प्रतिमोदध्वमग्निमेतँ शिवमायन्तमभ्यत्र युष्माः । व्यस्यन्विश्वाऽअनिराऽअमीवा निषीदन्नो अप दुर्मतिञ्जहि ॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋतम्। सत्यम्। ऋतम्। सत्यम्। अग्निम्। पुरीष्यम्। अङ्गिरस्वत्। भरामः। ओषधयः। प्रति। मोदध्वम्। अग्निम्। एतम्। शिवम्। आयन्तमित्याऽयन्तम्। अभि। अत्र। युष्माः। व्यस्यन्निति विऽअस्यन्। विश्वाः। अनिराः। अमीवाः। निषीदन्। निसीदन्निति निऽसीदन्। नः। अप। दुर्मतिमिति दुःऽमतिम्। जहि॥४७॥
विषय - राजा, सेनापति और वीर सैनिकों की वायु और औषधियों से तुलना ।
भावार्थ -
( अङ्गिरस्वत्) वायु जिस प्रकार ( पुरीष्यम् अग्निम् ) रक्षाकारी साधनों में सब से उत्तम विद्युत् को धारण करता है। और जिस प्रकार ( अङ्गिरस्वत् ) तेजस्वी विद्वान् ( पुरीष्यम् ) पालन करने में समर्थ ( अग्निम् ) अग्नि के समान परंतप राजा को पुष्ट करता है उसी प्रकार हम लोग ( सत्यम् ) सत्य, यथार्थ ज्ञान को या ( सत्यम् ) सत् पुरुषों में विद्यमान, (ऋतम्) यथार्थ ज्ञान और भाषण और कर्म को या वेदज्ञान को ( भराम: ) धारण करें। ( ओषधयः ) जिस प्रकार बिजली के कड़कने पर जौ आदि ओषधियां अति प्रसन्न होकर लहलहाती हैं उसी प्रकार हे ( ओषधयः ) वीर्यों को धारण करने वाले वीर पुरुषो ! आप लोग ( शिवम् ) कल्याणकारी ( युष्मा: अभि ) आप लोगों के प्रति ( अत्र आयान्तम् ) इधर इस राष्ट्र में प्राप्त होते हुए ( एतम् अग्निम् ) इस तेजस्वी शत्रुसंतापक राजा को प्राप्त कर ( प्रतिमोदध्वम् ) सत्कारों द्वारा हर्ष प्रकट करो। हे राजन ! हे विद्वन् ! तू ( विश्वाः ) समस्त प्रकार के ( अनिराः ) अन्नादि समृद्धियों को न देने वाली अथवा ( अनिरा: ) अन्नादि के नाशक दैवी विपत्तियों को ( व्यस्यन् ) दूर करता हुआ ( अमीवा ) स्वयं रोग रहित होकर ( निषीदन् ) विराजमान होकर ( नः ) हमारे ( दुर्मतिम् ) दुष्टमति या दुष्ट मार्ग में जाने वाली दुःखदायी मति को या ( नः दुर्मतिम् ) हममें से दुष्ट बुद्धि वाले पुरुष को ( अपजहि ) विनाश कर ।शत० ६ । ४ । ४ । १०-१६ ॥ कालिदास ने जिस प्रकार वसिष्ठ का वर्णन रघुवंश में लिखा है:-- पुरुषायुषजीविन्यो निरातङ्काः निरीतयः । यन्मदीयाः प्रजास्तस्य हेतुस्त्वद् ब्रह्मवर्चसम् ॥ १ । ६३ ॥ उपपन्नं ननु शिवं सप्तस्वङ्गेषु यस्य मे । दैवीनां मानुषीणां च प्रतिहर्त्ता त्वमापदाम् ॥ १ ॥ ६० ॥ हविरावर्जितं होतस्त्वया विधिवदग्निषु । वृष्टिर्भवति सस्यानामवग्रहविशोविणाम् ॥ १ । ६२ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
प्रजापतिः साध्या वा ऋषयः।अग्निदेवता । विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
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