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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 21
    ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः देवता - विदुषी देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    मू॒र्द्धासि॒ राड् ध्रु॒वासि॑ ध॒रुणा॑ ध॒र्त्र्यसि॒ धर॑णी। आयु॑षे त्वा॒ वर्च॑से त्वा कृ॒ष्यै त्वा॒ क्षेमा॑य त्वा॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मू॒र्द्धा। अ॒सि॒। राट्। ध्रु॒वा। अ॒सि॒। ध॒रुणा॑। ध॒र्त्री। अ॒सि॒। धर॑णी। आयु॑षे। त्वा॒। वर्च॑से। त्वा॒। कृ॒ष्यै। त्वा॒। क्षेमा॑य। त्वा॒ ॥२१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मूर्धासि राड्धु्रवासि धरुणा धर्त्र्यसि धरणी । आयुषे त्वा वर्चसे त्वा कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मूर्द्धा। असि। राट्। ध्रुवा। असि। धरुणा। धर्त्री। असि। धरणी। आयुषे। त्वा। वर्चसे। त्वा। कृष्यै। त्वा। क्षेमाय। त्वा॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 21
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    भावार्थ -
    हे राजशक्ते ! तू (मूर्धा वा राट् असि ) द्यौ या सूर्य के समान सब से उच्च शिरोभाग पर स्थित है। तू 'राष्ट्र' अर्थात् सूर्य के समान ही तेजस्विनी है। ( ध्रुवा धरुणा असि ) ध्रुवा दिशा जिस प्रकार सब का आश्रय है उसी प्रकार तू भी स्थिर होकर राष्ट्र को धारण करने वाली है । ( धर्त्री धरणी असि ) तू समस्त प्रजा को धारण करने वाली और धरणी भूमि के समान सबका आधार है। इसी प्रकार घर में स्त्री सब के ऊपर सूर्य-प्रभा के समान गुणों से प्रकाशित, आश्रयस्तम्भ के समान स्थिर और पृथ्वी के समान सब गृहस्थ का धारण करने वाली है तुझको मैं (आयुषे) आयु, जीवनवृद्धि के लिये ( वर्चसे ) तेज की वृद्धि के लिये ( कृष्यै ) खेती, अन्नादि की उत्पत्ति के लिये और ( क्षेत्राय ) प्रजा की सुख वृद्धि के लिये ( त्वा ४ ) तुझ को स्वीकार करता हूं ॥ शत० ८ । ३ । ४ । १-८ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वेदेवा ऋषयः । प्राणाः विदुषी देवता । निचृद् अनुष्टुप् । ऋषभः ।।

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