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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 42
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    भु॒ज्युः सु॑प॒र्णो य॒ज्ञो ग॑न्ध॒र्वस्तस्य॒ दक्षि॑णाऽअप्स॒रस॑ स्ता॒वा नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑॥४२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भु॒ज्युः। सु॒प॒र्ण इति॑ सुऽपर्णः॒। य॒ज्ञः। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। दक्षि॑णाः। अ॒प्स॒रसः॑। स्ता॒वाः। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥४२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भुज्युः सुपर्णा यज्ञो गन्धर्वस्तस्य दक्षिणाऽअप्सरस स्तावा नाम । स न इदम्ब्रह्म क्षत्रम्पातु तस्मै स्वाहा वाट्ताभ्यः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    भुज्युः। सुपर्ण इति सुऽपर्णः। यज्ञः। गन्धर्वः। तस्य। दक्षिणाः। अप्सरसः। स्तावाः। नाम। सः। नः। इदम्। ब्रह्म। क्षत्रम्। पातु। तस्मै। स्वाहा। वाट्। ताभ्यः। स्वाहा॥४२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 42
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    भावार्थ -
    (यज्ञ) यज्ञ, प्रजापति ( भुज्युः ) सबका पालक रक्षक, भोग्य फल का देने वाला, (सुपर्णः) उत्तम पालन सामथ्यों से युक्त, ( गन्धर्वः ) वेद वाणी को धारण करने से 'गंधर्व' है । ( तस्य ) उसकी ( अप्सरसः ) प्रजाओं या कार्यकर्त्ताओं को प्राप्त होने वाली ( दक्षिणाः ) कार्य में दक्षता की उत्पादक दक्षिणायें, (स्तावा: ) सुपात्र में दी जाकर यज्ञकर्त्ता और यज्ञ दोनों की स्तुति के कारण होने से 'स्तावा' हैं । उसी प्रकार ( यज्ञः ) राष्ट्रपालक, राजा ( भुज्युः ) प्रजा का पालक और राष्ट्र का भोक्ता, (सुपर्णः ) आदित्य के समान उत्तम पालन सामर्थ्यो, उत्तम रथवाहनों व विमानों से सम्पन्न, ( यज्ञः ) सबका संगतिकारक ( गंधर्वः ) पृथ्वी का धारण पोषक है । ( तस्य ) उसकी ( अप्सरसः ) ज्ञान और कर्म में व्याप्त ( दक्षिणा: ) राष्ट्र कार्य में बल उत्पन्न करने वाली प्रजाएं (स्तावा: नाम ) स्तुतिः योग्य होने से 'स्तावा' हैं । ( स० -नः इदं० ) । 'भुज्यु' के विमानों को वर्णन देखो, ऋग्वेद मं० १ । सू० । ११६ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यज्ञो देवता । स्वराड आर्षी पंक्तिः । पंचमः ॥

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