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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 54
    ऋषिः - गालव ऋषिः देवता - इन्दु र्देवता छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    दि॒वो मू॒र्द्धासि॑ पृथि॒व्या नाभि॒रूर्ग॒पामोष॑धीनाम्। वि॒श्वायुः॒ शर्म॑ स॒प्रथा॒ नम॑स्प॒थे॥५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वः। मू॒र्द्धा। अ॒सि॒। पृ॒थि॒व्याः। नाभिः॑। ऊर्क्। अ॒पाम्। ओष॑धीनाम्। वि॒श्वायु॒रिति॑ वि॒श्वऽआ॑युः। शर्म॑। स॒प्रथा॒ इति॑ स॒ऽप्रथाः॑। नमः॑। प॒थे ॥५४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवो मूर्धासि पृथिव्या नाभिरूर्गपामोषधीनाम् । विश्वायुः शर्म सप्रथा नमस्पथे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः। मूर्द्धा। असि। पृथिव्याः। नाभिः। ऊर्क्। अपाम्। ओषधीनाम्। विश्वायुरिति विश्वऽआयुः। शर्म। सप्रथा इति सऽप्रथाः। नमः। पथे॥५४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 54
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    भावार्थ -
    हे राजन् ! जिस प्रकार ( दिन: मूर्धा ) सूर्य आकाश काऔर तेजोमय पिण्डों या प्रकाश का ( मूर्धा ) उत्तमाङ्ग, शिर के समान सर्वोच्च है उसी प्रकार तू ( दिवः ) ज्ञानवान् पुरुषों की बनी राजसभा के ( मूर्धा ) मूर्धा, शिरोमणि, प्रधान, सर्वोच्च पद पर विराजमान (असि ) है । तू ( पृथिव्या नाभिः ) पृथिवी के नाभि के समान समस्त पृथ्वी के राज्य का प्रबन्ध करने वाला राष्ट्र का मुख्य केन्द्र है । तू (अपाम् ऊर्ग ) जलों के उत्कृष्ट रस अन्न के समान (अपाम् ) आप्त प्रजाजनों का (ऊर्क ) सर्वोत्तम बलरूप, पराक्रमी, सार रूप है । ( ओषधीनाम् ) वीर्यवती ओषधियों के बीच में सोम के समान तेजस्विनी क्षात्र सेनाओं में सेना- पति है । तू ( विश्वायुः ) वायु के समान समस्त प्रजाओं का जीवनप्रद, ( शर्म ) गृह के समान शरण और ( सप्रथाः ) समान रूप से सर्वत्र विख्यात, एवं सर्वत्र महान् है । ( पथे ) सबके मार्गस्वरूप, सबको उद्देश्य तक पहुँचाने वाले तुझे ( नमः ) नमस्कार हो । तुझे प्रजा के वश करने का बल अधिकार प्राप्त हो । परमेश्वर के पक्ष में स्पष्ट है । शत० ९ । ४ । ४ । १३ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता । आर्षी उष्णिक् । ऋषभः ।

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