यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 11
यदा॑पि॒पेष॑ मा॒तरं॑ पु॒त्रः प्रमु॑दितो॒ धय॑न्। ए॒तत्तद॑ग्नेऽअनृ॒णो भ॑वा॒म्यह॑तौ पि॒तरौ॒ मया॑। स॒म्पृच॑ स्थ॒ सं मा॑ भ॒द्रेण॑ पृङ्क्त वि॒पृच॑ स्थ॒ वि मा॑ पा॒प्मना॑ पृङ्क्त॥११॥
स्वर सहित पद पाठयत्। आ॒पि॒पेषेत्या॑ऽपि॒पेष॑। मा॒तर॑म्। पु॒त्रः। प्रमु॑दित॒ इति॒ प्रऽमु॑दितः। धय॑न्। ए॒तत्। तत्। अ॒ग्ने॒। अ॒नृ॒णः। भ॒वा॒मि॒। अह॑तौ। पि॒तरौ॑। मया॑। स॒म्पृच॒ इति॒ स॒म्ऽपृचः॑। स्थ॒। सम्। मा॒। भ॒द्रेण॑। पृ॒ङ्क्त॒। वि॒पृच॒ इति॑ वि॒ऽपृचः॑। स्थ॒। वि। मा॒। पा॒प्मना॑। पृ॒ङ्क्त॒ ॥११ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदापिपेष मातरम्पुत्रः प्रमुदितो धयन् । एतत्तदग्नेऽअनृणो भवाम्यहतौ पितरौ मया । सम्पृच स्थ सम्मा भद्रेण पृङ्क्त विपृच स्थ वि मा पाप्मना पृङ्क्त ॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्। आपिपेषेत्याऽपिपेष। मातरम्। पुत्रः। प्रमुदित इति प्रऽमुदितः। धयन्। एतत्। तत्। अग्ने। अनृणः। भवामि। अहतौ। पितरौ। मया। सम्पृच इति सम्ऽपृचः। स्थ। सम्। मा। भद्रेण। पृङ्क्त। विपृच इति विऽपृचः। स्थ। वि। मा। पाप्मना। पृङ्क्त॥११॥
विषय - पुत्र का माता पिता के प्रति कर्त्तव्य । पितृ ऋण से मुक्ति, राजा का पृथ्वी के प्रति कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
(यत्) जब (पुत्रः) पुत्र ( प्रमुदित: ) अत्यन्त हर्षित होकर ( धयन् ) स्तन्य पान करता हुआ (मातरम् ) माता को (आपिपेष) गाढ़ आलिंगन करता है । (तत्) तब ( एतत् ) इस प्रकार हे (अग्ने) अग्रणी, ज्ञानवान्, विद्वान् ! मैं ( अनुणः ) माता-पिता के ऋण से मुक्त ( भवामि ) हो जाता हूँ । (मया) मैंने ( पितरौ ) माता-पिता को ( अहतौ ) पीड़ित न रखकर सुखी कर दिया । पुत्र न होना भी माता-पिता को दुःखित रखना है । हे प्रेमी विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (संपृच: स्थ ) मुझ से सत्संग करने वाले हो, आप लोग ( माम् ) मुझे (भद्रेण) सुखप्रद कल्याण से (सं पृङ्क्त ) संयुक्त करो । हे विवेकी विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (विपृचः स्थ) विविध विषयों का ज्ञान करने और विवेक करनेवाले हो | आप लोग (मां) मुझे (पाप्मना ) पाप से (वि पृङ्क्त) विमुक्त रखो । शत० १२ । ७ । ३ । २१-२२ ॥
राजपुरुषों को त्राण करने में समर्थ पुरुष, वीर राजा पुत्र है । वह माता या गायरूप पृथ्वी के पुत्र के समान ही उसका वास होकर उसके ऐश्वर्य प्राप्त करता है, माता के तुल्य पृथ्वी को सेना बल से लताड़ता है तो भी विद्वान् राजा ऋण मुक्त ही होता है । जब (पितरौ ) माता-पिता के समान पालक पुरुष नर नारी कभी पीड़ित न हों, कष्ट न पावें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्नि । शक्वरी । धैवतः ॥
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