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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 54
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    त्वꣳ सो॑म पि॒तृभिः॑ संविदा॒नोऽनु॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽआ त॑तन्थ। तस्मै॑ तऽइन्दो ह॒विषा॑ विधेम व॒य स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम्॥५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। सो॒म॒। पि॒तृभि॒रिति॑ पि॒तृऽभिः॑। सं॒वि॒दा॒न इति॑ सम्ऽविदा॒नः। अनु॑। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। आ। त॒त॒न्थ॒। तस्मै॑। ते॒। इ॒न्दो॒ऽइति॑ इन्दो। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒। व॒यम्। स्या॒म॒। पत॑यः। र॒यी॒णाम् ॥५४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वँ सोम पितृभिः सँविदानोनु द्यावापृथिवीऽआ ततन्थ । तस्मैऽत इन्दो हविषा विधेम वयँ स्याम पतयो रयीणाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। सोम। पितृभिरिति पितृऽभिः। संविदान इति सम्ऽविदानः। अनु। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। आ। ततन्थ। तस्मै। ते। इन्दोऽइति इन्दो। हविषा। विधेम। वयम्। स्याम। पतयः। रयीणाम्॥५४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 54
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    भावार्थ -
    हे (सोम) सोम ! राजन् ! (स्वम् ) तू (पतृभिः) राष्ट्रपालक शासकों एवं राजसभा के पुरुषों से (संविदानः) सहमति करता हुआ (अनु) तदनुसार ( द्यावापृथिवी) सूर्य, पृथिवी के समान राजशक्ति और प्रजागण को (आततन्थ) विस्तृत कर । हे (इन्दो) चन्द्र के समान प्रिय ! (ते तस्मै) उस तुझे हम (हविषा ) स्वीकार और प्रदान करने योग्य आदर, पुरस्कार द्वारा (विधेम) सत्कार करें, और ( वयम् ) हम ( रयीणाम् ) ऐश्वयों के (पतयः) स्वामी (स्याम) हों ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शंखः । सोमः ।भुरिक् पंक्तिः । पंचमः ॥

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