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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 86
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आ॒न्त्राणि॑ स्था॒लीर्मधु॒ पिन्व॑माना॒ गुदाः॒ पात्रा॑णि सु॒दुघा॒ न धे॒नुः। श्ये॒नस्य॒ पत्रं॒ न प्ली॒हा शची॑भिरास॒न्दी नाभि॑रु॒दरं॒ न मा॒ता॥८६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒न्त्राणि॑। स्था॒लीः। मधु॑। पिन्व॑मानाः। गुदाः॑। पात्रा॑णि। सु॒दुघेति॑ सु॒ऽदुघा॑। न। धे॒नुः। श्ये॒नस्य॑। पत्र॑म्। न। प्ली॒हा। शची॑भिः। आ॒स॒न्दीत्या॑ऽस॒न्दी। नाभिः॑। उ॒दर॑म्। न। मा॒ता ॥८६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आन्त्राणि स्थालीर्मधु पिन्वमाना गुदाः पात्राणि सुदुघा न धेनुः । श्येनस्य पत्रन्न प्लीहा शचीभिरासन्दी नाभिरुदरन्न माता ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आन्त्राणि। स्थालीः। मधु। पिन्वमानाः। गुदाः। पात्राणि। सुदुघेति सुऽदुघा। न। धेनुः। श्येनस्य। पत्रम्। न। प्लीहा। शचीभिः। आसन्दीत्याऽसन्दी। नाभिः। उदरम्। न। माता॥८६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 86
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    भावार्थ -

    ( श्येनस्य) बाज के समान तीव्र वेग से शत्रु पर आक्रमणकारी राजा की ( स्थालीः) राज्य स्थापन की शक्तियां (आन्त्राणि) शरीर में आँतों के समान राष्ट्ररूप ऐश्वर्य का भीतर ही उपयोग करती हैं । वे (पात्राणि) पालन करने वाले अधिकारी शासकों के पद, शरीर में (मधु पिन्वमाना:) अन्न रस को शरीर में पहुँचा देने वाले (गुदाः) गुदागत स्थूल नाड़ियों के समान, आनन्द या मधु ऐश्वर्यं को सर्वत्र पहुँचाने हारे हैं और ( सुदुघा) ऐश्वर्यों की देने वाली यह पृथ्वी (धेनुः न) दुधार गौ के समान है । शरीर मैं (प्लीहा न) तिल्ली जिस प्रकार शरीरस्थ विकारों को नाश करती है उसी प्रकार ( श्येनस्य) बाज के समान शत्रु पर झपटने वाले वीर पुरुष का ( पत्रम् ) तलवार या विजय रथ है । ( नाभिः आसन्दी ) जिस प्रकार शरीर में नाभि केन्द्र है, नाड़ियाँ वहां सब सम्बन्ध हैं उसी प्रकार 'आसन्दी ' राजा के बैठने की गद्दी या राजधानी है। जिस प्रकार (उदरं न माता) शरीर में उदर, पेट समस्त अन्नों को लेकर रस ग्रहण करता और अपरस वा मल को बाहर निकालता है उसी प्रकार राजा की 'माता' उसको उत्पन्न करने वाली 'माता' ज्ञान करने हारी परिषद्, सत्य- असत्य, ग्राह्य-अग्राह्य का विवेक करती है। वह (शचीभिः) अपनी प्रज्ञाओं और शक्तियों से राज्य का सञ्चालन करती है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    अश्व्यादयः। सविता | त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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