यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 34
ऊर्जं॒ वह॑न्तीर॒मृतं॑ घृ॒तं पयः॑ की॒लालं॑ परि॒स्रु॑तम्। स्व॒धा स्थ॑ त॒र्पय॑त मे पि॒तॄन्॥३४॥
स्वर सहित पद पाठऊर्ज॑म्। वह॑न्तीः। अ॒मृत॑म्। घृ॒तम्। पयः॑। की॒लाल॑म्। प॒रि॒स्रुत॒मिति॑ परि॒ऽस्रुत॑म्। स्व॒धाः। स्थ॒। त॒र्पय॑त। मे॒। पि॒तॄन् ॥३४॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्जँवहन्तीरमृतन्घृतम्पयः कीलालम्परिस्रुतम् । स्वधा स्थ तर्पयत मे पितऋृन् ॥
स्वर रहित पद पाठ
ऊर्जम्। वहन्तीः। अमृतम्। घृतम्। पयः। कीलालम्। परिस्रुतमिति परिऽस्रुतम्। स्वधाः। स्थ। तर्पयत। मे। पितॄन्॥३४॥
विषय - उत्तम पदार्थों से पिता, माता, वृद्ध जनों का तर्पण।
भावार्थ -
हे ( आपः ) आप: ! आप्त पुरुषो ! प्राप्त पुत्रादि जनो ! आपः- जल के समान स्वच्छ उपकारक पुरुषो ! ( ऊर्जम् ) उत्तम अन्न रस ( अमृतम् ) रोगहारी, जीवनप्रद ( घृतम् ) तेजोदायक, घृत (पयः) पुष्टिकारक दुग्ध (कीलालम् ) अन्न और ( परिस्रुतम् ) सब प्रकार से स्रवित रससे युक्त, पके फल एवं औषधि विधि से तय्यार किये उत्तम रसायन आदि इन सब को ( वहन्तीः ) धारण करते हुए ( मे पितॄन् ) मेरे पालक वृद्धजनों को ( तर्पयत ) तृप्त करो। आप ( स्वधाः स्थ ) अब स्वयं अपने आपको और अपने वृद्ध, पालक, सत्कार योग्य पुरुषों को भी अपने बलपर धारण पोषण करने में समर्थ हो ॥
अन्न पक्ष - ( ऊर्जम् ) उत्तम अन्नरस ( अमृतम् ) जीवनशक्ति, (घृतम्) घी, तेज, ( पयः ) दूध, पुष्टिकारक पदार्थ, ( कीलालम् ) भोज्य अन्न, ( परिस्रुतम् ) आसव आदि तीव्र सूक्ष्म औषध इन सब तत्वों को धारण करने वाले (आपः) जल हैं। वे ही ' स्वधा' चरम अन्न हैं। उनसे हे पुरुषो ! ( मे पितृन् तर्पयत ) मेरे प्राणों को तृप्त करो ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
आपो देवता । भुरिग् उष्णिक् । ऋषभः ॥
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