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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 26
    ऋषिः - अश्वतराश्विर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    यत्रेन्द्र॑श्च वा॒युश्च॑ स॒म्यञ्चौ॒ चरतः स॒ह।तं लो॒कं पुण्यं॒ प्रज्ञे॑षं॒ यत्र॑ से॒दिर्न वि॒द्यते॑॥२६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑। इन्द्रः॑। च॒। वा॒युः। च॒। स॒म्यञ्चौ॑। चर॑तः। स॒ह। तम्। लो॒कम्। पुण्य॑म्। प्र। ज्ञे॒षम्। यत्र॑। से॒दिः। न। वि॒द्यते॑ ॥२६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्रेन्द्रश्च वायुश्च सम्यञ्चो चरतः सह । तँलोकम्पुण्यम्प्र ज्ञेषँयत्र सेदिर्न विद्यते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र। इन्द्रः। च। वायुः। च। सम्यञ्चौ। चरतः। सह। तम्। लोकम्। पुण्यम्। प्र। ज्ञेषम्। यत्र। सेदिः। न। विद्यते॥२६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 26
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    भावार्थ -
    (यत्र) जहां, जिस लोक में (इन्द्रः च वायुः च) इन्द्र और -वायु ( सम्यञ्चौ ) पूर्ण बलवान् होकर ( सह चरतः ) एक साथ विचरण 'करते हैं मैं ( तं लोकम् ) उस लोक, स्थान, प्रदेश, आत्मा और समाज को (पुण्यम् ) प्रवित्र (प्रज्ञेषम् ) जानता हूँ । (यन्त्र) जहां (सेदिः) अन्नादि के न मिलने के कारण उत्पन्न विपत्ति, दुर्भिक्ष आदि क्लेश ( न विद्यते ) नहीं होता । ( १ ) मोक्ष में इन्द्र अर्थात् जीव और वायु अर्थात् व्यापक परमेश्वर दोनों साथ विचरते हैं, वह पुण्य लोक है । वहां भूख प्यास, जन्म मरण कष्ट नहीं । ( २ ) जिसमें इन्द्र, राजा, वायु सेनापति दोनों सुसंगत रहते हैं वह देश पुण्य है जहां अन्नादि का अभाव और प्रजाजन का नाश नहीं होता । (३) वह शरीर पवित्र है जिसमें आत्मा और प्राण सुसंगत रहें, जहां रोगादि क्लेश नहीं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋष्यादि पूर्ववत् ॥

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