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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 32
    ऋषिः - कौण्डिन्य ऋषिः देवता - परमात्मा देवता छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    यो भू॒ताना॒मधि॑पति॒र्यस्मिँ॑ल्लो॒काऽअधि॑ श्रि॒ताः। यऽईशे॑ मह॒तो म॒हाँस्तेन॑ गृह्णामि॒ त्वाम॒हं मयि॑ गृह्णामि॒ त्वाम॒हम्॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। भू॒ताना॑म्। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। यस्मि॑न्। लो॒काः। अधि॑। श्रि॒ताः। यः। ईशे॑। म॒ह॒तः। म॒हान्। तेन॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। त्वाम्। अ॒हम्। मयि॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। त्वाम्। अ॒हम् ॥३२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो भूतानामधिपतिर्यस्मिँलोकाऽअधिश्रिताः । यऽईशे महतो महाँस्तेन गृह्णामि त्वामहम्मयि गृह्णामि त्वामहम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः। भूतानाम्। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। यस्मिन्। लोकाः। अधि। श्रिताः। यः। ईशे। महतः। महान्। तेन। गृह्णामि। त्वाम्। अहम्। मयि। गृह्णामि। त्वाम्। अहम्॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 32
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    भावार्थ -
    राजा के कर्त्तव्य । हे राजन् ! (यः) जो परमेश्वर ( भूता- नाम् ) समस्त चराचर प्राणियों का (अधिपतिः) सर्वोपरि स्वामी है । ( यस्मिन् लोकाः) जिसके आश्रय पर समस्त लोक, (अधिश्रिताः) आश्रित हैं, (यः) जो ( महान् ) सबसे महान् होकर (महतः) बड़े-बड़े आकाशादि महत् परिणाम के पदार्थों और महत्तत्व आदि प्रकृति के विकारों को भी (ईशे) अपने वश कर रहा है (तेन) उस परमेश्वर के परम ऐश्वर्य से त्वाम् ) तुझको ( अहम् ) मैं (गृह्णामि ) राज्य पद के लिये स्वीकार करता हूँ । (स्वाम् ) तुझको ( अहम् ) मैं राज्य कार्य का मुख्य प्रवर्त्तक 'अध्वर्यु' (मयि ) अपने ही उत्तरदायित्व पर (गृह्णामि ) स्वीकार करता हूँ अर्थात् जैसे परमात्मा समस्त भूतों का पति है वैसे राजा भी राष्ट्र का स्वामी बने, जैसे उसमें समस्त लोक स्थित हैं, वैसे उसके आश्रय पर समस्त लोक जन हैं । जैसे वह बड़े आकाशादि पर वश करता है वैसे राजा बड़े-बड़े राजाओं पर वश करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नारायणीयः कौडिन्य ऋषिः । आत्मा परमात्मा च देवते । पंक्तिः । पंचमः ॥

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