यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 40
ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः
देवता - अश्व्यादयो देवताः
छन्दः - निचृदत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
1
होता॑ यक्षद॒ग्नि स्वाहाज्य॑स्य स्तो॒काना॒ स्वाहा॒ मेद॑सां॒ पृथ॒क् स्वाहा॒ छाग॑म॒श्विभ्या॒ स्वाहा॒॑ मे॒षꣳ सर॑स्वत्यै॒ स्वाह॑ऽऋष॒भमिन्द्रा॑य सि॒ꣳहाय॒ सह॑सऽइन्द्रि॒यꣳ स्वाहा॒ग्निं न भे॑ष॒जꣳ स्वाहा॒ सोम॑मिन्द्रि॒यꣳ स्वाहेन्द्र॑ꣳ सु॒त्रामा॑णꣳ सवि॒तारं॒ वरु॑णं भि॒षजां॒ पति॒ꣳ स्वाहा॒ वनस्पतिं॑ प्रि॒यं पाथो॒ न भे॑ष॒जꣳ स्वाहा॑ दे॒वाऽआ॑ज्य॒पा जु॑षा॒णोऽअ॒ग्निर्भे॑ष॒जं पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥४०॥
स्वर सहित पद पाठहोता॑। य॒क्ष॒त्। अ॒ग्निम्। स्वाहा॑। आज्य॑स्य। स्तो॒काना॑म्। स्वाहा॑। मेद॑साम्। पृथ॑क्। स्वाहा॑। छाग॑म्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। स्वाहा॑। मे॒षम्। सर॑स्वत्यै। स्वाहा॑। ऋ॒ष॒भम्। इन्द्रा॑य। सि॒ꣳहाय॑। सह॑से। इ॒न्द्रि॒यम्। स्वाहा॑। अ॒ग्निम्। न। भे॒ष॒जम्। स्वाहा॑। सोम॑म्। इ॒न्द्रि॒यम्। स्वाहा॑। इन्द्र॑म्। सु॒त्रामा॑ण॒मिति॑ सु॒ऽत्रामा॑णम्। स॒वि॒तार॑म्। वरु॑णम्। भि॒षजा॑म्। पति॑म्। स्वाहा॑। वन॒स्पति॑म्। प्रि॒यम्। पाथः॑। न। भे॒ष॒जम्। स्वाहा॑। दे॒वाः। आ॒ज्य॒पा इत्या॑ज्य॒ऽपाः। जु॒षा॒णः। अ॒ग्निः। भे॒ष॒जम्। पयः॑। सोमः॑ प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥४० ॥
स्वर रहित मन्त्र
होता यक्षदग्निँ स्वाहाज्यस्य स्तोकानाँ स्वाहा मेदसाम्पृथक्स्वाहा छागमश्विभ्याँ स्वाहा मेषँ सरस्वत्यै स्वाहऽऋषभमिन्द्राय सिँहाय सहसऽइन्द्रियँ स्वाहाग्निन्न भेषजँ स्वाहा सोममिन्द्रियँ स्वाहेन्द्रँ सुत्रामाणँ सवितारँवरुणम्भिषजाम्पतिँ स्वाहा वनस्पतिम्प्रियम्पाथो न भेषजँ स्वाहा देवा आज्यपा जुषाणो अग्निर्भेषजम्पयः सोमः परिस्रुता घृतम्मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज ॥
स्वर रहित पद पाठ
होता। यक्षत्। अग्निम्। स्वाहा। आज्यस्य। स्तोकानाम्। स्वाहा। मेदसाम्। पृथक्। स्वाहा। छागम्। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। स्वाहा। मेषम्। सरस्वत्यै। स्वाहा। ऋषभम्। इन्द्राय। सिꣳहाय। सहसे। इन्द्रियम्। स्वाहा। अग्निम्। न। भेषजम्। स्वाहा। सोमम्। इन्द्रियम्। स्वाहा। इन्द्रम्। सुत्रामाणमिति सुऽत्रामाणम्। सवितारम्। वरुणम्। भिषजाम्। पतिम्। स्वाहा। वनस्पतिम्। प्रियम्। पाथः। न। भेषजम्। स्वाहा। देवाः। आज्यपा इत्याज्यऽपाः। जुषाणः। अग्निः। भेषजम्। पयः। सोमः परिस्रुतेति परिऽस्रुता। घृतम्। मधु। व्यन्तु। आज्यस्य। होतः। यज॥४०॥
विषय - अधिकार प्रदान और नाना दृष्टान्तों से उनके और उनके सहायकों के कर्तव्यों का वर्णन । अग्नि, तनूनपात्, नराशंस, बर्हि, द्वार, सरस्वती, उषा, नक्ता, दैव्य होता, तीन देवी, त्वष्टा, वनस्पति, अश्विद्वय इन पदाधिकारियों को अधिकारप्रदान ।
भावार्थ -
(होता) पूर्वोक्त उचित पुरुषों को नियुक्त करने वाला होता विद्वान् (अग्निम् ) अग्रणी सेनापति को (स्वाहा ) उत्तम रीति, सुख्याति और उत्तम वृत्ति से ( यक्षत् ) पद पर नियुक्त करे । (आज्यस्य) प्राप्त होने योग्य, विजयकारी सेनाबल साधन के लिये ( स्तोकानाम् ) खोटी वृत्ति वालों को भी (सु-आहा ) उत्तम शिक्षा द्वारा ( यक्षत् ) नियुक्त करे । ( मेदसाम् ) सिंह आदि के तुल्य एक स्थान पर मिलकर न रहने वाले हिंसक पुरुषों को ( पृथक् ) पृथक् (स्वाहा ) उत्तम शिक्षा और व्यवस्था से युक्त करे । ( अश्विभ्याम्) अश्वि, राष्ट्र में व्यापक, बड़े दो पदों के लिये ( छागम् ) प्रजाओं के दुःखों और दुष्टों के गर्वों के काटने में समर्थ पुरुष को (स्वाहा ) उत्तम वृत्ति देकर ( यक्षत् ) नियुक्त करे । ( सरस्वत्यै मेषम् ) सरस्वती, प्रशस्त ज्ञान वाली स्त्री के लिये जिस प्रकार वीर्यवान् समर्थ पुरुष को प्राप्त किया जाता है उसी प्रकार उत्तम ज्ञानवान् पुरुषों की विद्वत्सभा के लिये (मेषम् ) प्रतिष्पर्द्धा से टक्कर लेने वाले, ज्ञान जलों के वर्षक और विद्वान् पुरुषों को नियुक्त करे । (इन्द्राय) इन्द्र, राजा पद के लिये ( ऋषभम् ) मेघ के समान प्रजाओं पर सुखवर्षक, सौम्य पुरुप को ( यक्षत् ) नियुक्त करे । इसी प्रकार (सिंहाय) सिंह के समान बलशाली पुरुष के योग्य (सहसे) शत्रु को पराभव करने वाले बल कार्य के लिये ( इन्द्रियम् ) इन्द्र महाराज पद योग्य, ऐश्वर्यवान्, शत्रु के पराजेता बली पुरुष को (स्वाहा ) उत्तम वृत्ति, भूमि एवं मान द्वारा ( यक्षत् ) नियुक्त करे । ( अग्निं न ) अग्नि के समान तेजस्वी, ज्ञानी पुरुष को (भेषजम् ) दोष को दूर करने वाले औषध के समान (स्वाहा ) उत्तम आदर से (यक्षत् ) नियुक्त करे । (सोमम् इन्द्रियम् ) सोम, राजा पद को भी इन्द्र, शत्रुनाशक बलधारी पुरुष के समान ही (स्वाहा ) उत्तम मान आदर से (यक्षत् ) युक्त करे । (इन्द्रम् ) शत्रुहन्ता, (सुत्रामाणाम् ) उत्तम प्रजा के रक्षक, ( सवितारम् ) सब के प्रेरक ( वरुणम् ) सर्वश्रेष्ठ सबके वरण योग्य पुरुष को ( भिषजां पतिम् ) सर्व दोषों के चिकित्सकों ज्ञानवान् पुरुषों के भी पालक बनाकर उनको ( स्वाहा ) उत्तम रीति से ( यक्षत् ) नियुक्त करे । ( प्रियम् पार्थः न ) प्रिय, मनोहारी अन्न के समान, (वनस्पति) महावृक्ष के समान सर्वाश्रय दाता ऐश्वर्यवान् पुरुष को ( भेष- जम् ) उपद्रवों को शान्त करने वाले औषध के समान जानकर ( स्वाहा ) आदर से ( यक्षत् ) रक्खे । (देवाः) देव, विजिगीषु लोग सभी (आज्यपाः) संग्राम के विजयकारी पदों के पालक हों । (जुषाणः) आदरपूर्वक नियुक्त (अग्नि) ज्ञानी विद्वान् नेता ही ( भेषजम् ) औषध के समान राष्ट्र शरीर के सब अंगों को शान्त स्वस्थ रखता है । ( पयः सोमः ० इत्यादि) पूर्ववत् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निचृदत्यष्टिः । गान्धारः ।
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