Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 58
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - आद्यस्याऽत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
    1

    दे॒वोऽअ॒ग्निः स्वि॑ष्ट॒कृद्दे॒वान् य॑क्षद् यथाय॒थꣳ होता॑रा॒विन्द्र॑म॒श्विना॑ वा॒चा वा॒चꣳ सर॑स्वतीम॒ग्निꣳ सोम॑ स्विष्ट॒कृत् स्वि॑ष्ट॒ऽइन्द्रः॑ सु॒त्रामा॑ सवि॒ता वरु॑णो भि॒षगि॒ष्टो दे॒वो वन॒स्पतिः॒ स्विष्टा दे॒वाऽआ॑ज्य॒पाः स्वि॑ष्टोऽअ॒ग्निर॒ग्निना॒ होता॑ हो॒त्रे स्वि॑ष्ट॒कृद् यशो॒ न दध॑दिन्द्रि॒यमूर्ज॒मप॑चिति स्व॒धां व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वः। अ॒ग्निः। स्वि॒ष्ट॒कृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। दे॒वान् य॒क्ष॒त्। य॒था॒य॒थमिति॑ यथाऽय॒थम्। होता॑रौ। इन्द्र॑म्। अ॒श्विना॑। वा॒चा। वाच॑म्। सर॑स्वतीम्। अ॒ग्निम्। सोम॑म्। स्वि॒ष्ट॒कृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। स्वि॑ष्ट॒ इति॒ सुऽइ॑ष्टः। इन्द्रः॑। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। स॒वि॒ता। वरु॑णः। भि॒षक्। इ॒ष्टः। दे॒वः। वन॒स्पतिः॑। स्वि॑ष्टा॒ इति॒ सुऽइ॑ष्टाः। दे॒वाः। आ॒ज्य॒पा इत्या॑ज्य॒ऽपाः। स्वि॑ष्ट॒ इति॒ सुऽइ॑ष्टः। अ॒ग्निः। अ॒ग्निना॑। होता॑। हो॒त्रे। स्वि॒ष्ट॒कृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। यशः॑। न। दध॑त्। इ॒न्द्रि॒यम्। ऊर्ज॑म्। अप॑चिति॒मित्यप॑ऽचितिम्। स्व॒धाम्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवोऽअग्निः स्विष्टकृद्देवान्यक्षद्यथायथँ होताराविन्द्रमश्विना वाचा वाचँ सरस्वतीमग्निँ सोमँ स्विष्टकृत्स्विष्ट इन्द्रः सुत्रामा सविता वरुणो भिषगिष्टो देवोवनस्पतिः स्विष्टा देवाऽआज्यपाः स्विष्टोऽअग्निरग्निना होता होत्रे स्विष्टकृद्यशो न दधदिन्द्रियमूर्जमपचितिँ स्वधाँ वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवः। अग्निः। स्विष्टकृदिति स्विष्टऽकृत्। देवान् यक्षत्। यथायथमिति यथाऽयथम्। होतारौ। इन्द्रम्। अश्विना। वाचा। वाचम्। सरस्वतीम्। अग्निम्। सोमम्। स्विष्टकृदिति स्विष्टऽकृत्। स्विष्ट इति सुऽइष्टः। इन्द्रः। सुत्रामेति सुऽत्रामा। सविता। वरुणः। भिषक्। इष्टः। देवः। वनस्पतिः। स्विष्टा इति सुऽइष्टाः। देवाः। आज्यपा इत्याज्यऽपाः। स्विष्ट इति सुऽइष्टः। अग्निः। अग्निना। होता। होत्रे। स्विष्टकृदिति स्विष्टऽकृत्। यशः। न। दधत्। इन्द्रियम्। ऊर्जम्। अपचितिमित्यपऽचितिम्। स्वधाम्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। व्यन्तु। यज॥५८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 58
    Acknowledgment

    भावार्थ -
    ( स्विष्टकृत् ) उत्तम रीति से अधिकार प्रदान करने वाला (देव: अभिः) विद्वान् अग्रणी पुरुष ( देवान् यक्षत् ) अन्य विद्वान्, विजयशील, पुरुषों को नियुक्त करे । (होतारौ ) अधिकार प्रदान करने वाले (अश्विना) अश्वी नामक व्यापक अधिकार वाले पुरुष (वाचा) अपनी आज्ञा वाणी से ( इन्द्रम् ) इन्द्र ऐश्वर्यवान्, शत्रुनाशक पुरुष को नियुक्त करते हैं । वे ही ( वाचम् ) व्यवस्था, वाणी का विधान करते हैं । वे ही ( सरस्वतीम् ) विद्वत्-सभा को, ( अग्निम् ) अग्रणी सेनापति को और ( सोमम् ) ऐश्वर्यवान् राजा को, नियुक्त करते हैं । (स्विष्टकृत् स्विष्टः ) उत्तम शासक पुरुष भी उत्तम आदर के पद को प्राप्त हो । (सुत्रामा इन्द्रः) उत्तम रक्षक इन्द्र नामक पदाधिकारी, (सविता, वरुणः भिषग्) सविता, वरुण और चिकित्सक, (देवः वनस्पतिः) वनस्पति नामक विजेता सेनापति ये सब (इष्टः) उचित आदर प्राप्त करें । (आज्यपाः देवाः) बल वीर्य के रक्षक विद्वान् पुरुष (स्विष्टाः) उत्तम आदर प्राप्त करें। (अग्निना) अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष द्वारा ही (अग्निः) उसी प्रकार का तेजस्वी पुरुष (स्विष्टः) उत्तम आदर पद प्राप्त करे । और (होता) अधिकार दाता पुरुषं(होत्रे) अन्य अधिकार दाता पुरुष को ( स्विष्टकृत् ) उत्तम आदर मान दे । और वह (यशः) यश, (इन्द्रियम् ) ऐश्वर्य ( ऊर्जम् ) बल, पराक्रम, ( अपचितिम् ) आदर पूजा, ( स्वधाम् ) अन्न वेतनादि ( दधत् ) प्रदान करे । ये सभी ( वसुवने ) ऐश्वर्य के अधिकारी बड़े राजा के कार्य के लिये ( वसुधेयस्य व्यन्तु ) उचित धनैश्वर्य प्राप्त करें । हे होत: ! (यज) उन सबको अधिकार और वेतनादि प्रदान कर ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top