यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 7
ऋषिः - गयप्लात ऋषिः
देवता - स्वर्ग्यानौर्देवता
छन्दः - यवमध्या गायत्री
स्वरः - षड्जः
1
सु॒नाव॒मा रु॑हेय॒मस्र॑वन्ती॒मना॑गसम्। श॒तारि॑त्रा स्वस्तये॑॥७॥
स्वर सहित पद पाठसु॒नाव॒मिति॑ सु॒ऽनाव॑म्। आ। रु॒हे॒य॒म्। अस्र॑वन्तीम्। अना॑गसम्। श॒तारि॑त्रा॒मिति॑ श॒तऽअ॑रित्राम्। स्व॒स्तये॑ ॥७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुनावमा रुहेयमस्रवन्तीमनागसम् । शतारित्राँ स्वस्तये ॥
स्वर रहित पद पाठ
सुनावमिति सुऽनावम्। आ। रुहेयम्। अस्रवन्तीम्। अनागसम्। शतारित्रामिति शतऽअरित्राम्। स्वस्तये॥७॥
विषय - राजसभा और राज्यव्यवस्था की नौका के साथ तुलना कर्त्तव्यदृष्टि से उसका उत्तम स्वरूप ।
भावार्थ -
( अस्त्रवन्तीम् ) अपना रहस्य बाहर न जाने देने वाली, गुप्त -मन्त्र रखने वाली, ( अनागसम् ) बुरे पापाचारियों से रहित, निर्दोष, धर्मानुकूल कार्यों को करने वाली, ( शतारित्राम् ) संकट से पार जाने के - सैकड़ों उपायों से युक्त ( सुनावम् ) उत्तम मार्ग से प्रेरित करने वाली नौका के समान राजसभा और धर्मसभा का (आरुहेयम् ) मैं राजा आश्रय लूं । नौः, नुदति प्रेरयतीति नौः । ग्लानुदिभ्यां डौ प्रत्ययः । उणादि २ । ६४ ॥ इति दया० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गयप्लात ऋषिः । स्वर्या नौर्देवता । यवमध्या विराट् गायत्री । षड्जः ॥
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