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  • यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 12
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    सु॒ष्टु॒तिꣳ सु॑मती॒वृधो॑ रा॒तिꣳ स॑वि॒तुरी॑महे। प्र दे॒वाय॑ मती॒विदे॑॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ष्टु॒तिम्। सु॒स्तु॒तिमिति॑ सुऽस्तु॒तिम्। सु॒म॒ती॒वृधः॑। सु॒म॒ति॒वृध॒ इति॑ सुमति॒ऽवृधः॑। रा॒तिम्। स॒वि॒तुः। ई॒म॒हे॒। प्र। दे॒वाय॑। म॒ती॒विदे॑। म॒ति॒विद॒ इति॑ मति॒ऽविदे॑ ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुष्टुतिँ सुमतीवृधो रातिँ सवितुरीमहे । प्र देवाय मतीविदे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुष्टुतिम्। सुस्तुतिमिति सुऽस्तुतिम्। सुमतीवृधः। सुमतिवृध इति सुमतिऽवृधः। रातिम्। सवितुः। ईमहे। प्र। देवाय। मतीविदे। मतिविद इति मतिऽविदे॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 22; मन्त्र » 12
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    भावार्थ -
    ( सुमतीवृधः) उत्तम स्तुति और मति, ज्ञान की वृद्धि करने वाले (सवितुः) सर्वोत्पादक, परमेश्वर और सर्वप्रेरक राजा का (देवाय ) धन विद्यादि की कामना करने वाले (मतीविदे) विद्वान् के प्रति योग्य ( रातिम् ) दान की ( ईमहे) याचना करते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गायत्री । षड्जः ॥

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