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  • यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    इ॒माम॑गृभ्णन् रश॒नामृ॒तस्य॒ पूर्व॒ऽआयु॑षि वि॒दथे॑षु क॒व्या। सा नो॑ऽअ॒स्मिन्त्सु॒तऽआब॑भूवऽऋ॒तस्य॒ साम॑न्त्स॒रमा॒रप॑न्ती॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माम्। अ॒गृ॒भ्ण॒न्। र॒श॒नाम्। ऋ॒तस्य॑। पूर्वे॑। आयु॑षि। वि॒दथे॑षु। क॒व्या। सा। नः॒। अ॒स्मिन्। सु॒ते। आ। ब॒भू॒व॒। ऋ॒तस्य॑। साम॑न्। स॒रम्। आ॒रप॒न्तीत्या॒ऽरप॑न्ती ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमामगृभ्णन्रशनामृतस्य पूर्व आयुषि विदथेषु कव्या । सा नोऽअस्मिन्त्सुत आऽबभूवऽऋतस्य सामन्त्सरमारपन्ती ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमाम्। अगृभ्णन्। रशनाम्। ऋतस्य। पूर्वे। आयुषि। विदथेषु। कव्या। सा। नः। अस्मिन्। सुते। आ। बभूव। ऋतस्य। सामन्। सरम्। आरपन्तीत्याऽरपन्ती॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 22; मन्त्र » 2
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    भावार्थ -
    ( अस्मिन् सुते) इस उत्पन्न जगत् में (नः) हमें (सा) वह व्यापक शक्ति (आबभूव) ज्ञात होती है जो (ऋतस्य) मूल, परम सत्य कारणरूप परमेश्वर और प्रकृति के सत्य तत्व के ( सरम् ) व्यापार या चेष्टा को (सामन्) आदि से अन्त तक, समान रूप से (आ रपन्ती) स्पष्ट बतलाती है । (इमाम् ) उस ( रसनाम् ) व्यापक शक्ति की ज्ञान श्रृंखला को ही (ऋतस्य पूर्वे आयुषि ) संसार के प्रारम्भ काल में (कवयः) क्रान्तदर्शी ऋषि लोग (विदथेषु) यज्ञों और ज्ञान के अवसरों में या ज्ञानरूप वेदों में (अगृभ्णन् ) ग्रहण करते हैं, जानते हैं । राष्ट्र के पक्ष में- 'ऋत' व्यक्त जगत् के आदि काल में क्रान्तदर्शी ऋषि लोग रस्सी के समान नियामक शक्ति या व्यवस्था को ( विदथेषु) ज्ञानमय वेदों में प्राप्त करते हैं । वह व्यवस्था राजा के अभिषेक के अवसर पर भी हमें प्राप्त हो। वह 'ऋत' सत्य व्यवहार से पूर्ण राष्ट्र के ( सामन्) आदि से अन्त तक समान रूप से हमें ज्ञान का स्पष्ट उपदेश करने वाली है । शत० १३ । १ । २ । १ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यज्ञपुरुष ऋषिः । विद्वांसो देवताः । निवृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥ अथातश्चतुर्भिरध्यायैरश्वमेधः ॥

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