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  • यजुर्वेद - अध्याय 24/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरिक् संकृतिः स्वरः - गान्धारः
    1

    अश्व॑स्तूप॒रो गो॑मृ॒गस्ते प्रा॑जाप॒त्याः कृ॒ष्णग्री॑वऽआग्ने॒यो र॒राटे॑ पु॒रस्ता॑त् सारस्व॒ती मे॒ष्यधस्ता॒द्धन्वो॑राश्वि॒नाव॒धोरा॑मौ बा॒ह्वोः सौ॑मापौ॒ष्णः श्या॒मो नाभ्या॑ सौर्यया॒मौ श्वे॒तश्च॑ कृ॒ष्णश्च॑ पा॒र्श्वयो॑स्त्वा॒ष्ट्रौ लो॑म॒शस॑क्थौ स॒क्थ्योर्वा॑य॒व्यः श्वे॒तः पुच्छ॒ऽइन्द्रा॑य स्वप॒स्याय वे॒हद्वै॑ष्ण॒वो वा॑म॒नः॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्वः॑। तू॒प॒रः। गो॒मृ॒ग इति॑ गोऽमृ॒गः। ते। प्रा॒जा॒प॒त्या इति॑ प्राजाऽप॒त्याः। कृ॒ष्णग्री॑व॒ इति॑ कृ॒ष्णऽग्री॑वः। आ॒ग्ने॒यः। र॒राटे॑। पु॒रस्ता॑त्। सा॒र॒स्व॒ती। मे॒षी। अ॒धस्ता॑त्। हन्वोः॑। आ॒श्वि॒नौ। अ॒धोरा॑मा॒वित्य॒धःऽरा॑मौ। बा॒ह्वोः। सौ॒मा॒पौ॒ष्णः। श्या॒मः। नाभ्या॑म्। सौ॒र्य॒या॒मौ। श्वे॒तः। च॒। कृ॒ष्णः। च॒। पा॒र्श्वयोः॑। त्वा॒ष्ट्रौ। लो॒म॒शस॑क्था॒विति॑ लोम॒शऽस॑क्थौ। स॒क्थ्योः। वा॒य॒व्यः᳖। श्वे॒तः। पुच्छे॑। इन्द्रा॑य। स्व॒प॒स्या᳖येति॑ सुऽअप॒स्या᳖य। वे॒हत्। वै॒ष्ण॒वः। वा॒म॒नः ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वस्तूपरो गोमृगस्ते प्राजापत्याः कृष्णग्रीवऽआग्नेयो रराटे पुरस्तात्सारस्वती मेष्यधस्ताद्धन्वोराश्विनावधोरामौ बाह्वोः सौमपौष्णः श्यामो नाभ्याँ सौर्ययामौ श्वेतश्च कृष्णश्च पार्श्वयोस्त्वाष्ट्रौ लोमशसक्थौ सक्थ्योर्वायव्यः श्वेतः पुच्छ इन्द्राय स्वपस्याय वेहद्वैष्णवो वामनः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वः। तूपरः। गोमृग इति गोऽमृगः। ते। प्राजापत्या इति प्राजाऽपत्याः। कृष्णग्रीव इति कृष्णऽग्रीवः। आग्नेयः। रराटे। पुरस्तात्। सारस्वती। मेषी। अधस्तात्। हन्वोः। आश्विनौ। अधोरामावित्यधःऽरामौ। बाह्वोः। सौमापौष्णः। श्यामः। नाभ्याम्। सौर्ययामौ। श्वेतः। च। कृष्णः। च। पार्श्वयोः। त्वाष्ट्रौ। लोमशसक्थाविति लोमशऽसक्थौ। सक्थ्योः। वायव्यः। श्वेतः। पुच्छे। इन्द्राय। स्वपस्याययेति सुऽअपस्याय। वेहत्। वैष्णवः। वामनः॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 24; मन्त्र » 1
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    भावार्थ -
    राष्ट्र के अन्य अंग प्रत्यङ्गों का वर्णन - (१) 'अश्वस्तूपरों' गोमृगस्ते प्रजापत्याः ॥' (अश्व:) घोड़ा, (तूपरः) सींगों वाला मेढ़ा,' (गोमृयगः) गोमृग, नील गाय, ये तीन ( प्राजापत्याः) प्रजापालक राजा के रूप हैं, वे राजा के ही स्वभाव के हैं । घोड़ा जैसे विजयशील है, अपने ऊपर दूसरों को उठाता है, गाड़ी में लगा कर उसे खींचता है, इसी प्रकार राजा संग्राम में विजयी, अपने पर प्रजाओं का भार उठाता, राष्ट्र के रथ में जुड़कर राष्ट्र का संचालन करता है। मेढा जोश में दूसरों से सिर लड़ाता है, प्राणान्त तक लड़ना नहीं छोड़ता । इसी प्रकार प्रजापालक राजा अपने प्रतिस्पर्धी शत्रु से लड़े और प्राण रहते तक प्रतिपक्ष से से टक्कर ले | 'गोमृग' बारहसींगा या नीलगाय नीली मादा गाय के लिये प्राणपण से लड़ता है इसी प्रकार राजा भूमि के लिये प्राण दे । अथवा जैसे नीलगाय अपने चंवर बालों के लिये जान देती है राजा भी अपनी शोभा और मान के लिये प्राण दे । इस प्रकार ये तीन पशु प्रजापति राजा के प्रतिनिधि हैं । इसी से ये तीनों प्रजापति देवता के हैं । अर्थात् घोड़े समान वेगवान्, युद्धशील, मेढ़े के समान प्रतिपक्षी से प्राण रहते टक्कर लेने वाला और गबय के समान योग्य लक्ष्मी के लिये प्राणपण से लड़ने वाला, ये तीनों प्रकार के पुरुष प्रजापति के गुण वाले होने से प्रजापति, राजा के पद के योग्य हैं । 'प्राजापत्याः ' – प्रजापतिदेवताका इत्यर्थः । देवो गुणदर्शनात् गुण द्योतनात् वा । तथा चाह दयानन्दः । अत्र सर्वत्र देवता शब्देन तत्तदगुणयोगात्पशवो वेदितव्याः ॥ (२) 'कृष्णग्रीव आग्नेयो रराटे पुरस्तात्' (कृष्णगीवः) काली गर्दन वाला (आग्नेय) अग्नि देवता वाला है । वह राष्ट्र के (रराटे) ललाट में, शिर भाग या मुख्य भाग में ( पुरस्तात् ) आगे स्थापित करने योग्य है । अर्थात् जैसे अग्नि नीचे उज्ज्वल और धूम से नील होता है उसी प्रकार श्वेत पशु जिसके गर्दन में काला है वह अग्नि के समान है । उसी प्रकार वह पुरुष जो उज्ज्वज पोशाक और गर्दन में काला या नीला वस्त्र, या नीले मणि आदि चिन्ह धारण करे वह 'अग्नि' पद अग्रणी नेता होने योग्य है वह (रराटे) ललाट या शिरवत् प्रमुख पद पर या मस्तक से विचार 'झील हो । (३) 'सरस्वती मेषी अधस्तात् हन्वोः' (सरस्वती) सरस्वती देवता की (मेषी) भेड़ ( हन्वोः अधस्तात् ) दोनों जबाड़े नीचे । अर्थात् भेड़ का स्वभाव है कि दो लड़ाऊ मेढ़ों में जो प्रबल है वह उसको प्राप्त होती है । अर्थात् ( हन्वोः) परस्पर आघात प्रतिघात करने वालों के ( अधस्तात् ) मूल में, जैसे दोनों की स्पर्द्धा का विषय वह मेड़ी है और जैसे (सरस्वती) सरस्वती, वाणी वाक् शक्ति ( हन्वोः अधस्तात् ) दोनों जबाड़ों के नीचे है इसी प्रकार (सारस्वती मेषी) सरस्वती नामक विद्वान् की प्रतिस्पर्द्धा में प्रवृत्त सभा भी (हन्बोः) पक्ष प्रतिपक्ष से एक दूसरे का खंडन करने वाले दोनों दलों के ( अधस्तात् ) नीचे, उनके किये निर्णय के अधीन रहे । (४) 'अश्विनौ अधोरामौ बाह्वोः ' शरीर में (बाहोः) जिस प्रकार बाहू हैं उसी प्रकार राष्ट्र शरीर में दो बाहुओं के स्थानों पर (आश्विनौ) 'अश्वि' देवता वाले (अधोरामौ) नीचे से श्वेत वर्ण के दो बकरों के समान स्वभाव के दो पुरुष नियुक्त हों । अर्थात् बकरे जैसे सदा खरते हैं उस प्रकार वे दोनों भी राष्ट्र को चर सकें, उसका शासन कर सकें, वे (अश्विनौ) अश्वि देवता के हैं वे राष्ट्र में व्याप्त होकर शासन करें । उनके पोशाक ऊपर से काले नीचे से श्वेत हों ऊपर से भयंकर और नीचे से उज्ज्वल हों । भीतर में हितैषी और प्रकट में कठोर पुरुषों को राष्ट्र के (बाह्वोः) बाहुओं के समान रक्षा निमित्त नियुक्त करें। (५) 'सौमा - पौष्णः श्यामः नाभ्याम्' सोम और पूषा देवता वाला नाभिस्थान में श्याम वर्ण का हो । (श्यामः) श्याम, हरे वर्ण का खेतों में लगा हुआ अन्न ( नाभ्याम् ) राष्ट्र के नाभि या केन्द्रस्थान या मध्यभाग में हो । वे (सौमा पौष्णाः) सोम, राष्ट्र के ऐश्वर्य और 'पौष्ण' प्रजा के पोषणकारी हैं। इस श्यामल वनस्पति वर्ग के दो देव, विद्वान् अधिकारी हैं, सोम, ओषधि रस का वेत्ता, वैद्य और पोषक अन्न का उत्पादक कृषि विभागाध्यक्ष । (६) 'सौर्ययामौ श्वेतः च कृष्णाः च पार्श्वयोः' सूर्य और यम अर्थात् वायु और आकाश इन दो के गुण दिखाने वाली काली और सफेद पोशाक को पहनने वाले दो मुख्य अधिकारी (पार्श्वयोः) राष्ट्र शरीर में दो पार्श्व या बगल हैं अर्थात् राष्ट्र का एक पार्श्व श्वेत सूर्य के समान तेजस्वी प्रखर राजा और दूसरा प्रार्श्व यम अर्थात् दिन के विपरीत रात्रि के समान समस्त राष्ट्र में शन्तिस्थापन नियन्ता पुरुष हो । 'सूर्य' नामक पदाध्यक्ष श्वेत हो, दूसरा नियन्ता 'यम' कृष्ण हो, वह रात्रि के समान सुख में प्रजा को प्रेम से खेचने वाला और पीड़ाओं से शत्रुओं को 'कर्षण' अर्थात् बन्धनागार में खेंचने वाला हो । राष्ट्र-व्यवस्था की ये ही दो पहलू हैं, एक प्रजा की वृद्धि और दूसरा दुष्टों का दमन । (७) 'त्वाष्टौ लोमश- सक्यौ सक्थ्यो:' (लोमशसक्यौ ) सक्थि अर्थात् समवाय, अर्थात् एका करके शत्रुओं का छेदन करने वाले दो नायक (त्वाष्ट्र) शत्रु सेनाओं को शस्त्रों से विनष्ट करने वाले हों। वे (सक्थ्योः) राष्ट्र- शरीर के 'सक्थि' अर्थात् जंघा भाग में स्थित हैं । ( ८ ) ( वायव्यः श्वेतः पुच्छे' पुच्छ भाग, आधार स्थान पर (वायव्य) वायु के समान तीव्र प्रचण्ड बलवान् (श्वेतः) अति वृद्धिशील, तेजस्वी पुरुष नियुक्त हो । (९) 'स्वपस्याय इन्द्राय वेहत्' (स्वपस्याय) उत्तम कर्म और प्रज्ञावान् (इन्द्राय ) इन्द्र, सेनापति पद के लिये ( वेहत् ) विशेष साधनों से शत्रुओं का नाश करने वाला पुरुष नियुक्त हो । (१०) 'वैष्णवो वामनः' व्यापक सामर्थ्यवान् पद के लिये (वामनः) अति सुन्दर, हृदयग्राही पुरुष नियुक्त हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिर्देवता । भुरिक् संकृतिः । गान्धारः ॥

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