Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 16
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - देव्यो देवताः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
    1

    द्वारो॑ दे॒वीरन्व॑स्य॒ विश्वे॑ व्र॒ता द॑दन्तेऽ अ॒ग्नेः।उ॒रु॒व्यच॑सो॒ धाम्ना॒ पत्य॑मानाः॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वारः॑। दे॒वीः। अनु॑। अ॒स्य॒। विश्वे॑। व्र॒ता। द॒द॒न्ते॒। अ॒ग्नेः। उ॒रु॒व्यच॑स॒ इत्यु॑रु॒ऽव्यच॑सः। धाम्ना॑। पत्य॑मानाः ॥१६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्वारो देवीरन्वस्य विश्वे व्रता ददन्तेऽअग्नेः । उरुव्यचसो धाम्ना पत्यमानाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    द्वारः। देवीः। अनु। अस्य। विश्वे। व्रता। ददन्ते। अग्नेः। उरुव्यचस इत्युरुऽव्यचसः। धाम्ना। पत्यमानाः॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    भावार्थ -
    (द्वार:) द्वार जिस प्रकार गृह के स्वामी को आने जाने देते हैं उसी की इच्छानुसार खुलते हैं, बंद होते हैं, (देवी:) स्त्रियां जिस प्रकार गृहस्वामी के ऐश्वर्यानुसार सजतीं और उसी के आज्ञानुसार कार्य, धर्माचरण आदि करती हैं उसी प्रकार (अस्य) इस (अग्ने) ज्ञानवान् अग्रणी नायक पुरुष के (अनु) अनुकूल उसके पीछे, (देवी: द्वारः) विजय- शील शत्रुवारक सेनाएं और (विश्वे) समस्त पुरुष (व्रता ) नाना सत्य भाषण आदि कर्मों को (ददन्ते) धारण करते हैं और (उरुव्यचसः) महान् व्यापक सामर्थ्य वाले इसके ही (धाम्ना) तेज, ऐश्वर्य से और पराक्रम या पद से वे स्वयं (पत्यमाना ) ऐश्वर्यवान्, समृद्ध हो जाते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - द्वारो देव्यः । निचृदुष्णिक् । ऋषभः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top