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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    त्वाम॑ग्ने वृणते ब्राह्म॒णाऽ इ॒मे शि॒वोऽ अ॑ग्ने सं॒वर॑णे भवा नः।स॒प॒त्न॒हा नो॑ अभिमाति॒जिच्च॒ स्वे गये॑ जागृ॒ह्यप्र॑युच्छन्॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम्। अ॒ग्ने॒। वृ॒ण॒ते॒। ब्रा॒ह्म॒णाः। इ॒मे। शि॒वः। अ॒ग्ने॒। सं॒वर॑ण॒ इति॑ सं॒ऽवर॑णे। भ॒व॒। नः॒ ॥ स॒प॒त्न॒हेति॑ सपत्न॒ऽहा। नः॒। अ॒भि॒मा॒ति॒जिदित्य॑भिमाति॒ऽजित्। च॒। स्वे। गये॑। जा॒गृहि॒। अप्र॑युच्छ॒न्नित्यप्र॑ऽयुच्छन् ॥३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामग्ने वृणते ब्राह्मणाऽइमे शिवोऽअग्ने सँवरणे भवा नः । सपत्नहा नोऽअभिमातिजिच्च स्वे गय जागृह्यप्रयुच्छन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम्। अग्ने। वृणते। ब्राह्मणाः। इमे। शिवः। अग्ने। संवरण इति संऽवरणे। भव। नः॥ सपत्नहेति सपत्नऽहा। नः। अभिमातिजिदित्यभिमातिऽजित्। च। स्वे। गये। जागृहि। अप्रयुच्छन्नित्यप्रऽयुच्छन्॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 3
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    भावार्थ -
    हे (अग्ने) राजन् ! तेजस्वी पुरुष ! ( त्वाम् ) तुझको ( इमे ब्राह्मणाः) ये ब्रह्म के जानने हारे विद्वान् ब्राह्मण लोग (वृणते) वरण करते हैं, हे (अग्ने) अग्ने ! तेजस्विन् ! तू (नः) हमारे (संवरणे) वरण कर लेने पर (शिवः) हमें कल्याण और सुख देने हारा (भव) हो । और (सपलहा ) शत्रुओं का नाशक और (अभिमाति - जित् च) गर्वीले, दुष्ट पुरुषों को विजय - करने हारा होकर (स्वे गये) अपने गृह और विजित राष्ट्र में ( अप्रयुच्छन् ) प्रमाद न करता हुआ (जागृहि ) सदा सावधान हो जगता रह ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निः । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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