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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 7
    ऋषिः - बृहदुक्थो गोतम ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - जगती स्वरः - निषादः
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    होता॑ यक्ष॒द् दैव्या॒ होता॑रा भि॒षजा॒ सखा॑या ह॒विषेन्द्रं॑ भिषज्यतः।क॒वी दे॒वौ प्रचे॑तसा॒विन्द्रा॑य धत्तऽ इन्द्रि॒यं वी॒तामाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। दैव्या॑। होता॑रा। भि॒षजा॑। सखा॑या। ह॒विषा॑। इन्द्र॑म्। भि॒ष॒ज्य॒तः॒। क॒वीऽइति॑ क॒वी। दे॒वौ। प्रचे॑तसा॒विति॒ प्रऽचे॑तसौ। इन्द्रा॑य। ध॒त्तः॒। इ॒न्द्रि॒यम्। वी॒ताम्। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षद्दैव्या होतारा भिषजा सखाया हविषेन्द्रम्भिषज्यतः । कवी देवौ प्रचेतसाविन्द्राय धत्तऽइन्द्रियँवीतामाज्यस्य होतर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। दैव्या। होतारा। भिषजा। सखाया। हविषा। इन्द्रम्। भिषज्यतः। कवीऽइति कवी। देवौ। प्रचेतसाविति प्रऽचेतसौ। इन्द्राय। धत्तः। इन्द्रियम्। वीताम्। आज्यस्य। होतः। यज॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 7
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    भावार्थ -
    ( होता यक्षत् ) अधिकारदाता विद्वान् योग्य पुरुषों को अधिकार प्रदान करे । (दैव्या) विद्वान् और विजिगीषु पुरुषों में श्रेष्ठ (होतारौ) उत्तम सुख के देने वाले, (भिषजा) उत्तम रोग चिकित्सकों के समान (सखायौ) मित्र होकर (हविषा ) उत्तम अन्न आदि उपायों से ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् राजा को ( भिषज्यतः) शारीरिक और मानसिक तथा राष्ट्र सम्बन्धी रोगों और कष्टों से निवृत्त रखते हैं । वे (कवी) उत्तम दूरदर्शी (देवौ) स्वयं ज्ञान के प्रदाता, (प्रचेतसौ) उत्तम ज्ञानवान्, उत्तम चित्तों वाले होकर (इन्द्रस्य) इन्द्र, राष्ट्रपति के ( इन्द्रियम् ) इन्द्रिय सामर्थ्य और ऐश्वर्ययुक्त पद को ( धत्तः) रक्षा और पालन करते हैं वे भी (आज्यस्य) राष्ट्र के ऐश्वर्य को ( वीताम् ) प्राप्त करें । (होत: यज) हे विद्वन् ! तू उनको अधिकार प्रदान कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अश्विनौ । जगती । निषादः ॥

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