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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 14
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    असि॑ य॒मोऽअस्या॑दि॒त्योऽअ॑र्व॒न्नसि॑ त्रि॒तो गुह्ये॑न व्र॒तेन॑।असि॒ सोमे॑न स॒मया॒ विपृ॑क्तऽआ॒हुस्ते॒ त्रीणि॑ दि॒वि बन्ध॑नानि॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असि॑। य॒मः। असि॑। आ॒दि॒त्यः। अ॒र्व॒न्। असि॑। त्रि॒तः। गुह्ये॑न। व्र॒तेन॑। असि॑। सोमे॑न। स॒मया॑। विपृ॑क्त॒ इति॒ विऽपृ॑क्तः। आ॒हुः। ते॒। त्रीणि॑। दि॒वि। बन्ध॑नानि ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असि यमोऽअस्यादित्योऽअर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन । असि सोमेन समया विपृक्तऽआहुस्ते त्रीणि दिवि बन्धनानि् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    असि। यमः। असि। आदित्यः। अर्वन्। असि। त्रितः। गुह्येन। व्रतेन। असि। सोमेन। समया। विपृक्त इति विऽपृक्तः। आहुः। ते। त्रीणि। दिवि। बन्धनानि॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 14
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    भावार्थ -
    हे राजन् ! तू ( यमः असि) स्वयं प्राण वायु के समान राष्ट्र का नियामक है । (आदित्य: असि) सूर्य के समान सब कार्यों का प्रका- शक, सूर्यवत् प्रजा से कर लेनेहारा है । तू ही (अर्वन् असि ) शीघ्र गतिवाला होकर (गुह्येन व्रतेन ) रक्षा करने योग्य हमसे (त्रितः) तीनों लोकों में व्यापक वायु के समान उत्तम मध्यम और भधम व राजा, शासक और प्रजा तीनों में व्यापक है और ( सोमेन ) ऐश्वर्यमय राष्ट्र से (समया विपृक्तः) सदा संयुक्त रहता है । (ते) तेरे (दिवि) राजसभा में ( त्रीणि - बन्धनानि) तीनों प्रकार के बंधन ( आहुः ) बतलाते हैं । सूर्य लोक को बांधने वाले तीन बंधन, आकर्षण, प्रकाश और प्राण हैं । परस्पर समाज तीन बंधन शरीररक्षा, बाणी की प्रतिज्ञा और मानस प्रेम । राजा इन तीनों से बलवान् अश्व के समान बंधा रहे । वह आचार में पवित्र वाणी में सच्चा और मन में प्रजा के प्रति प्रेमी रहे । सूर्य के द्यौलोक में तीन बांधने के साधन हैं—आकर्षण, तेज और गति या चेतन सामर्थ्य | उत्पन्न जीव के भी जीवन में तीन बंधन हैं— देव ऋण, पितृऋण और ऋषिऋण जिनके प्रतिनिधि यज्ञोपवीत के तीन सूत्र हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निः । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥ '

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