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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 5
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निवायुसूर्य्या देवताः छन्दः - दैवी बृहती,निचृत् बृहती, स्वरः - मध्यमः
    1

    भूर्भुवः॒ स्वर्द्यौरि॑व भू॒म्ना पृ॑थि॒वीव॑ वरि॒म्णा। तस्या॑स्ते पृथिवि देवयजनि पृ॒ष्ठेऽग्निम॑न्ना॒दम॒न्नाद्या॒याद॑धे॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भूः। भुवः॑। स्वः॑। द्यौरि॒वेति॒ द्यौःऽइ॑व। भू॒म्ना। पृ॒थि॒वीवेति॑ पृथि॒वीऽइ॑व। व॒रि॒म्णा॒। तस्याः॑। ते॒। पृ॒थि॒वि॒। दे॒व॒य॒ज॒नीति॑ देवऽयजनि। पृ॒ष्ठे। अ॒ग्निम्। अ॒न्ना॒दमित्य॑न्नऽअ॒दम्। अ॒न्नाद्या॒येत्य॑न्न॒ऽअद्या॑य। आ। द॒धे॒ ॥५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेग्निमन्नादमन्नाद्याया दधे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    भूः। भुवः। स्वः। द्यौरिवेति द्यौःऽइव। भूम्ना। पृथिवीवेति पृथिवीऽइव। वरिम्णा। तस्याः। ते। पृथिवि। देवयजनीति देवऽयजनि। पृष्ठे। अग्निम्। अन्नादमित्यन्नऽअदम्। अन्नाद्यायेत्यन्नऽअद्याय। आ। दधे॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 5
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    भावार्थ -

     ( भूः ) यह पृथ्वी लोक ( भुवः ) अन्तरिक्ष और ( स्वः ) वह द्यौलोक और ( भूः ) ब्राह्मण, ( भुवः ) क्षत्रिय, ( स्वः ) वैश्य और ( भूः ) आत्मा, या स्वयं पुरुष ( भुवः ) प्रजा, पुत्र आदि ( स्वः ) पशुगण इनके हित के लिये मैं ( भूम्ना ) अति अधिक महान ऐश्वर्य और सामर्थ्य से और अधिक प्रजाजनों से उसी प्रकार युक्त होजाऊं जैसे ( द्यौः ) यह महान् आकाश नक्षत्रों से, परमैश्वर्य युक्त है और (पृथिवी इव ) पृथिवी जिस प्रकार विशाल है, सबको आश्रय देती है, उसी प्रकार की ( वरिम्णा ) विशालता से मैं भी युक्त होऊं । हे ( पृथिवि ) पृथिवि ! हे ( देवयजनि ) देव - विद्वानों के यज्ञ करने के आश्रयभूत ! ( ते तस्याः ) उस तेरी ( पृष्ठे ) पीठ, पृष्ठ पर ( अन्नादम् ) समस्त अन्नों के भोग करने वाले (अग्निम् ) अग्निरूप प्रजापति राजा को ( आदधे) स्थापित करता हूं। अथवा हे स्त्रीऔर हे वेदि ! तू ( भूम्ना ) अपनी महती शक्ति से ( द्यौः इव ) आकाश के समान गुण रूप नक्षत्रों से सुशोभित है और ( वरिम्णा पृथिवीव ) उत्तम गुणों से पृथिवी के समान उदार पुत्रादि उत्पत्तिकारक पालक और गृहका आश्रय है ! हे ( देवयजनि पृथिवि ) विद्वान् द्वारा पूजनीय पृथिवी के समान योग्य भूमि ( अन्नादम् अग्निम् ) अन्न का भोग करने वाले या कर्म फल के भोग करने वाले अग्नि जीवात्मा को मैं ( अन्नाद्याय ) भावी जीवन के कर्मफल भोग के लिये ही वीर्य रूप से तुझ में ( आदधे ) आधान करता हूँ || शत० का० २ । ८ । १-२८ ॥ 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    अग्निवायुसूर्याः पृथिवी च देवताः | ( १) देवी बृहती । ( २ ) निचृद् बृहती ।मध्यमः स्वरः ॥

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