यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 2
ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः
देवता - परमात्मा देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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सर्वे॑ निमे॒षा ज॑ज्ञिरे वि॒द्युतः॒ पुरु॑षा॒दधि॑।नैन॑मू॒र्द्ध्वं न ति॒र्य्यञ्चं॒ न मध्ये॒ परि॑ जग्रभत्॥२॥
स्वर सहित पद पाठसर्वे॑। नि॒मे॒षा इति॑ निऽमे॒षाः। ज॒ज्ञि॒रे॒। वि॒द्युत॒ इति॑ वि॒ऽद्युतः॑। पुरु॑षात्। अधि॑। न। ए॒न॒म्। ऊर्द्ध्वम्। न। ति॒र्य्यञ्च॑म्। न। मध्ये॑। परि॑। ज॒ग्र॒भ॒त् ॥२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि । नैनमूर्ध्वन्न तिर्यञ्चन्न मध्ये परिजग्रभत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
सर्वे। निमेषा इति निऽमेषाः। जज्ञिरे। विद्युत इति विऽद्युतः। पुरुषात्। अधि। न। एनम्। ऊर्द्ध्वम्। न। तिर्य्यञ्चम्। न। मध्ये। परि। जग्रभत्॥२॥
विषय - उससे समस्त संसार की उत्पत्ति ।
भावार्थ -
( विद्युतः) विद्धुत् जैसे (निमेषाः) निमेष होते हैं, अर्थात् मेघस्थ विद्धुत् जैसे सहस्रों बार चमकती और सहस्रों बार छिप छिप जाती है, वे सब विलास उसी से उत्पन्न होते हैं और जैसे (विद्युत) विशेष तेजस्वी सूर्य से (निमेषाः) दिन और रात्रि उत्पन्न होते हैं, अथवा जिस प्रकार सूर्य के (निमेषाः) नियम से बराबर 'मेष' आदि राशि प्रवेश राशि के संक्रमण से मास और वर्ष उत्पन्न होते हैं, अथवा निमेष त्रुटि, काष्ठा, विपल, पल, घड़ी, होरा, यांम, दिन, पक्ष, मास, वर्ष आदि सभी उत्पन्न होते हैं, अथवा – सूर्य से निरन्तर वर्षणशील मेघ उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार ( विद्धुतः पुरुषात् ) विशेष द्धुति से प्रकाशमान्, समस्त जगत् के प्रकाशक पूर्ण परमेश्वर से (सर्वे निमेषाः) समस्त निमेष, अध्यात्म में नेत्रादि इन्द्रियों के निमीलन, उन्मीलन, सूर्य से, कला, काष्ठा आदि काल के अवयव और जगत् के उत्पत्ति, स्थित, प्रलय तथा निरन्तर होने वाला उत्पाद और विनाश सब (अधिजज्ञिरे) उत्पन्न होते हैं । कोई भी ( एनम् ) उसको (न तिर्यञ्चम् ) न तिरछे, ( न ऊर्ध्वम् ) न ऊपर से और (न मध्ये) न बीच में से (परिजग्रभत् ) ग्रहण करता है, अर्थात् उसको किसी विशेष अंग से भी पकड़ा नहीं जा सकता, उसका पूर्ण ज्ञान नहीं किया जा सकता ।
स एष् नेति नेत्यात्मा अगृह्यो नहि गृह्यते । बृहदारण्यकोप० ॥
(२) राजा के पक्ष में — विशेष तेजस्वी पुरुष से राष्ट्र के समस्त निमेष, छोटे बड़े कार्य उत्पन्न होते हैं । उसको कोई ऊपर से, बीच में से, या तिरछे भी नहीं पकड़ सकता । कोई उसको वश नहीं कर सकता ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - परमात्मा । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
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