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  • यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 5
    ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः देवता - परमेश्वरो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    यस्मा॑ज्जा॒तं न पु॒रा किं च॒नैव य आ॑ब॒भूव॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑।प्र॒जाप॑तिः प्र॒जया॑ सꣳररा॒णस्त्रीणि॒ ज्योती॑षि सचते॒ सः। षो॑ड॒शी॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मा॑त्। जा॒तम्। न। पु॒रा। किम्। च॒न। ए॒व। यः। आ॒ब॒भूवेत्या॑ऽऽ ब॒भूव॑। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥ प्र॒जाऽप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। प्र॒जया॑ स॒ꣳर॒रा॒ण इति॑ सम्ऽररा॒णः। त्रीणि॑। ज्योती॑षि। स॒च॒ते॒। सः। षो॒ड॒शी ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्माज्जातन्न पुरा किञ्चनैव यऽआबभूव भुवनानि विश्वा । प्रजापतिः प्रजया सँरराणस्त्रीणि ज्योतीँषि सचते स ऐडशी ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मात्। जातम्। न। पुरा। किम्। चन। एव। यः। आबभूवेत्याऽऽ बभूव। भुवनानि। विश्वा॥ प्रजाऽपतिरिति प्रजाऽपतिः। प्रजया सꣳरराण इति सम्ऽरराणः। त्रीणि। ज्योतीषि। सचते। सः। षोडशी॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 32; मन्त्र » 5
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    भावार्थ -
    ( यस्मात् पुरा ) जिससे पहले (किञ्चन) कुछ भी ( न जातम् ) नहीं उत्पन्न हुआ और (यः) जो (विश्वा भुवनानि) समस्त लोकों, भुवनों को (आवभूव) व्याप्त हो रहा है । वह (प्रजापतिः) प्रजापालक परमेश्वर राजा और पिता के समान (प्रजया) अपनी समस्त उत्पन्न प्रजा सृष्टि के साथ (संरराणः) उसमें ही रमण करता हुआ ( त्रीणि ज्योतींषि ) तीन ज्योति अग्नि, वित्, सूर्य या सत्, चित्, आनन्द इनको (सचते) प्राप्त है, इनमें व्यापक है, इन तीन रूपों से स्मरण किया जाता है और (सः) वह ( षोडशी ) चंन्द्र के समान, आह्लादक १६ कला अर्थात् शक्तियों से सम्पन्न है । प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, इन्द्रिय,मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म और लोक, ये १६ अंश या कलाएं समष्टि रूप से परमात्मा में और व्यष्टि रूप से जीवात्मा में होने से वह षोडशी है । १६ राज्याङ्गों से युक्त राजा भी षोडशी है । वह भी प्रजा से ही रमण करता है । उसी में आनन्द प्रसन्न रहता है । 'प्रजापतिः स्व दुहितरं चकमे' इत्यादि अर्थवाद भी इसी बात को दर्शाते हैं । अध्यात्म में तीन तेज, आत्मा, इन्द्रिय और मन, समाज में ब्राह्मबल, क्षात्र-बल और अर्थ बल यही परमेश्वर के 'त्रिपाद्' या 'त्रीणिपदानि' है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - परमात्मा । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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