यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 22
ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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आ॒तिष्ठ॑न्तं॒ परि॒ विश्वे॑ऽअभूष॒ञ्छ्रियो॒ वसा॑नश्चरति॒ स्वरो॑चिः।म॒हत्तद् वृष्णो॒ऽअसु॑रस्य॒ नामा वि॒श्वरू॑पोऽअ॒मृता॑नि तस्थौ॥२२॥
स्वर सहित पद पाठआ॒तिष्ठ॑न्त॒मित्या॒ऽतिष्ठ॑न्तम्। परि॑। विश्वे॑। अ॒भू॒ष॒न्। श्रियः॑। वसा॑नः। च॒र॒ति॒। स्वरो॑चि॒रिति॒ स्वऽरो॑चिः ॥ म॒हत्। तत्। वृष्णः॑। असु॑रस्य। नाम॑। आ। वि॒श्वऽरू॑प॒ इति॒ वि॒श्वऽरू॑पः। अ॒मृता॑नि। त॒स्थौ॒ ॥२२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आतिष्ठन्तम्परि विश्वेऽअभूषञ्छ्रियो वसानश्चरति स्वरोचिः । महत्तद्वृष्णोऽअसुरस्य नामा विश्वरूपोऽअमृतानि तस्थौ ॥
स्वर रहित पद पाठ
आतिष्ठन्तमित्याऽतिष्ठन्तम्। परि। विश्वे। अभूषन्। श्रियः। वसानः। चरति। स्वरोचिरिति स्वऽरोचिः॥ महत्। तत्। वृष्णः। असुरस्य। नाम। आ। विश्वऽरूप इति विश्वऽरूपः। अमृतानि। तस्थौ॥२२॥
विषय - शासक का आदर्श सूर्य ।
भावार्थ -
( तिष्ठन्तम् ) एकत्र स्थिर हुए राजा को (विश्वे) सब लोग (परि) चारों ओर से ( अभूषन् ) घेर कर खड़े होते हैं । वह (स्वरोचि :) स्वयंप्रकाश, सूर्य के समान तेजस्वी ( श्रियः ) शोभाजनक ऐश्वर्यो को ( वसानः ) धारण करता हुआ (चरति) विचरता है । (वृष्ण: असुरस्य ) वर्षा करने वाले मेघ के समान समस्त प्राणियों को दान करने वाले उसका (महत् नाम) नमाने का बड़ा भारी सामर्थ्य है कि (विश्वरूपः ) विश्वरूप होकर अर्थात् समस्त पदाधिकारियों का स्वरूप धर कर ( अमृतानि ) अविनश्वर, ऐश्वर्श्यौ पर (तस्थौ ) शासक होकर विराजता है । विद्युत् पक्ष में — वर्षणशील मेघ में वह बड़ा भारी बल है जो नाना रूप होकर जलों में व्याप्त है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्रः । इन्द्रः । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
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