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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 44
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - वायुर्देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    प्र वा॑वृजे सुप्र॒या ब॒र्हिरे॑षा॒मा वि॒श्पती॑व॒ बीरि॑टऽइयाते।वि॒शाम॒क्तोरु॒षसः॑ पू॒र्वहू॑तौ वा॒युः पू॒षा स्व॒स्तये॑ नि॒युत्वा॑न्॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र। वा॒वृ॒जे। व॒वृ॒जे॒ऽइति॑ ववृजे। सु॒ऽप्र॒या इति॑ सुप्र॒याः। ब॒र्हिः। ए॒षा॒म्। आ। वि॒श्पती॑व। वि॒श्पती॒वेति॑ वि॒श्पती॑ऽइव। बीरि॑टे। इ॒या॒ते॒ ॥ वि॒शाम्। अ॒क्तोः। उ॒षसः॑। पू॒र्वहू॑ता॒विति॑ पू॒र्वऽहू॑तौ। वा॒युः। पू॒षा। स्व॒स्तये॑। नि॒युत्वा॑न् ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वावृजे सुप्रया बर्हिरेषामा विश्पतीव बीरिटऽइयाते । विशामक्तोरुषसः पूर्वहूतौ वायुः पूषा स्वस्तये नियुत्वान् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। वावृजे। ववृजेऽइति ववृजे। सुऽप्रया इति सुप्रयाः। बर्हिः। एषाम्। आ। विश्पतीव। विश्पतीवेति विश्पतीऽइव। बीरिटे। इयाते॥ विशाम्। अक्तोः। उषसः। पूर्वहूताविति पूर्वऽहूतौ। वायुः। पूषा। स्वस्तये। नियुत्वान्॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 44
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    भावार्थ -
    (सुप्रयाः वायुः) उत्तम वेग से चलने वाला वायु (एषाम् ) इन लोकों में से (बर्हिः) जल को ( प्र वावृजे) उत्तम रीति से ले लेता है और (पूषा) सबका पोषक सूर्य ( एषाम् ) इन लोकों में से (बर्हिः प्र बावृजे) किरणों द्वारा जल के अंश को पृथक् कर लेता है । अथवा, (सुप्रयाः वायुः यथो ब्रहिः प्र वावृजे) उत्तम वेग से चलने वाला वायु अन्न को भली प्रकार तुषों से पृथक कर देता है उसी प्रकार यह राजा (वायुः) वायु के समान प्रचण्ड वेग से जाने वाला, एवं प्रजा का प्राणस्वरूप, (सुप्रयाः) उत्तम अन्न आदि सामग्री से सम्पन्न अथवा उत्तम रीति से प्रयाण करने वाला, बलवान् होकर (एषाम् ) इन मनुष्यों में से (बहिः) प्रबल जन संघ को (प्र वावृजे) पृथक् कर लेता है । (पूषा) सर्व पोषक पूषा, भागधुग नामक अधिकारी (एषाम् ) इन प्रजाजनों के (बर्हिः) वृद्धिकर अन्न का उत्तम रीति से संग्रह करता है और (वायुः पूषा) वायु और सूर्य दोनों (बीरिटे इयाते) अन्तरिक्ष मार्ग से जाते हैं उसी प्रकार ये दोनों भी ( विश्पती इव ) प्रजा जनों के पालक और पोषक होकर (बीरिटे) भयभीत शत्रु और अधीन प्रजा के बीच ( नियत्वान् ) अश्वा- रोहिगण से युक्त होकर ( इयाते) गमन करते हैं और (अक्तोः) रात्रि और (उषसः) दिन के ( पूर्वहूतौ ) पूर्व ही बुलाये वायु और सूर्य के समान दोनों (विशां स्वस्तये ) प्रजाओं के कल्याण के लिये हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः । वायुः पूषा च । निचृद् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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