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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 70
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - वायुर्देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    प्र वी॑र॒या शुच॑यो दद्रिरे वामध्व॒र्युभि॒र्मधु॑मन्तः सु॒तासः॑।वह॑ वायो नि॒युतो॑ या॒ह्यच्छा॒ पिबा॑ सु॒तस्यान्ध॑सो॒ मदा॑य॥७०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र। वी॒र॒येति॑ वीर॒ऽया। शुच॑यः। द॒द्रिरे॒। वा॒म्। अ॒ध्व॒र्युभि॒रित्य॑ध्वर्युऽभिः॑। मधु॑मन्त॒ इति॒ मधु॑मन्तः। सु॒तासः॑। वह॑। वा॒योऽइति॑ वायो। नि॒युत॒ इति॑ नि॒ऽयुतः॑। या॒हि॒। अच्छ॑। पिब॑। सु॒तस्य॑। अन्ध॑सः। मदा॑य ॥७० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रवीरया शुचयो दद्रिरे वामध्वर्युभिर्मधुमन्तः सुतासः । वह वायो नियुतो याह्यच्छा पिबा सुतस्यान्धसो मदाय ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। वीरयेति वीरऽया। शुचयः। दद्रिरे। वाम्। अध्वर्युभिरित्यध्वर्युऽभिः। मधुमन्त इति मधुमन्तः। सुतासः। वह। वायोऽइति वायो। नियुत इति निऽयुतः। याहि। अच्छ। पिब। सुतस्य। अन्धसः। मदाय॥७०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 70
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    भावार्थ -
    हे राजा और प्रजाजनो ! (वाम् ) तुम दोनों के परस्पर सहयोग से बनी (वीरया) वीर, बलवती सेना के बल से ही ( शुचयः) शुद्ध पवित्र आचारवान्, निष्कपट पुरुष, (मधुमन्तः) ज्ञान और बलों से युक्त (सुतासः) वीर माता से उत्पन्न, सौम्य पुत्रों के समान विद्या और आचार-शिक्षा से सम्पन्न, एवं उत्तम पदों पर अभिषिक्त राजपुरुष (अध्वर्युभिः) परस्पर हिंसा, घात-प्रतिघात से रहित, राष्ट्रयज्ञ के सञ्चालक विद्वान पुरुषों से मिलकर ( प्र दद्रिरे) शत्रुओं की सेनाओं और उनके दल बल का विदारण करें, उनको भयभीत करें । हे (वायो ) वायु के समान शत्रुओं को उखाड़ने हारे बलवन् ! तू (नियुतः) नियुक्त, अपने अधीन सेनाओं या अश्वों, वायु के तीव्रता आदि गुणों को (वह) स्वयं धारण उनको अपने वश कर, (अच्छ याहि) शत्रुओं पर भली प्रकार चढ़ाई कर और (मदाय) हर्ष और प्रजा के सुख के लिये (अन्धसः) अन्न के और (सुतस्य) नाना प्रकार के भोग्य पदार्थ ऐश्वर्य और अभिषेक द्वारा प्राप्त राज्य को ओषधि रस के समान अपने शरीर, मन आदि की शक्ति वृद्धि करने और आत्मसुख और राष्ट्र के हर्ष के लिये (पिब) पान कर, उपभोग कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः । वायुर्देवता । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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