यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 9
अ॒ग्निर्वृ॒त्राणि॑ जङ्घनद् द्रविण॒स्युर्वि॑प॒न्यया॑।समि॑द्धः शु॒क्रऽआहु॑तः॥९॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः। वृ॒त्राणि॑। ज॒ङ्घ॒न॒त्। द्र॒वि॒ण॒स्युः। विप॒न्यया॑। समि॑द्ध॒ इति॒ सम्ऽइ॑द्धः। शु॒क्रः। आहु॑त॒ इत्याऽहु॑तः ॥९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्वृत्राणि जङ्घनद्द्रविणस्युर्विपन्यया । समिद्धः शुक्र आहुतः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निः। वृत्राणि। जङ्घनत्। द्रविणस्युः। विपन्यया। समिद्ध इति सम्ऽइद्धः। शुक्रः। आहुत इत्याऽहुतः॥९॥
विषय - अग्रणी नायक का दुष्ट संहार करने का कर्तव्य ।
भावार्थ -
जिस प्रकार (अग्निः) सूर्य और वायु (वृत्राणि) आकाश को घेरने वाले मेघों को छिन्न भिन्न करता है उसी प्रकार ( द्रविणस्युः) यश और धनैश्वर्य का इच्छुक (अग्नि) अग्रणी, दुष्टसंतापक, विद्वान्, नेता और राजा (विपन्यया) विविध प्रकार के व्यवहारों से युक्त नीति से स्वयं (समिद्धः) शीघ्रकारी होकर ( आहुतः ) शत्रुओं से ललकारा या दु:खी प्रजाओं से कष्ट निवारणार्थ पुकारा जाकर (वृत्राणि) प्रजा के नगरों के घेरने वाले शत्रुओं और सदाचार नाशक पापों को ( जंघनत् ) नाश करे । इसी प्रकार यश काअभिलाषी नेता राजा प्रजाओं स्तुतियों प्रार्थनाओं से प्रेरित होकर तेजस्वी सर्व स्वीकृत होकर कदाचारियों और राज्य के विघ्नों को नाश करे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भारद्वाजः । अग्निः । गायत्री । षड्जः ॥
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