यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 5
ऋषिः - आदित्या देवा ऋषयः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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स॒वि॒ता ते॒ शरी॑राणि मा॒तुरु॒पस्थ॒ऽआ व॑पतु।तस्मै॑ पृथिवि॒ शं भ॑व॥५॥
स्वर सहित पद पाठस॒वि॒ता। ते॒। शरी॑राणि। मा॒तुः। उ॒पस्थ॒ इत्यु॒प॑ऽस्थे॑। आ। व॒प॒तु॒ ॥ तस्मै॑। पृ॒थि॒वि॒। शम्। भ॒व॒ ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सविता ते शरीराणि मातुरुपस्थ आ वपतु । तस्मै पृथिवि शम्भव ॥
स्वर रहित पद पाठ
सविता। ते। शरीराणि। मातुः। उपस्थ इत्युपऽस्थे। आ। वपतु॥ तस्मै। पृथिवि। शम्। भव॥५॥
भावार्थ -
हे जीव ! (सविता) सबका प्रेरक राजा ( ते शरीराणि ) तेरे शरीरों को तेरे सम्बन्धी जनों को (मातुः) माता के समान पालक - पोषक पृथिवी के (उपस्थे ) ऊपर (आवपतु ) स्थापित करे । हे ( पृथिवि ) पृथिवी ! (तस्मै) उस प्रजाजन को तू (शं भव) कल्याणकारिणी हो । (२) जीव के प्रजनन पक्ष में — हे जीव उत्पादक पिता तेरे शरीरों को (मातृः) जननी के (उपस्थे) प्रजननाङ्ग में (आवपतु) बीज रूप से वपन करे । हे ( पृथिवि ) पृथिवी के समान आश्रय देने वाली माता ! उस गर्भगत जीव को तू (शं भव) शान्तिदायिनी हो । सविता, सूर्य पृथ्वी पर जीव जगत् के उत्पन्नः होने का कारण है । वही जल के साथ जीवन भी संचारित करता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वायुसवितारो । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
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