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  • यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 13
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    स्वाहा॑ म॒रुद्भिः॒ परि॑ श्रीयस्व दि॒वः स॒ꣳस्पृश॑स्पाहि।मधु॒ मधु॒ मधु॑॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वाहा॑। म॒रुद्भि॒रिति॑ म॒रुत्ऽभिः॑। परि॑। श्री॒य॒स्व॒। दि॒वः। स॒ꣳस्पृश॒ इति॑ स॒म्ऽस्पृशः॑। पा॒हि॒ ॥ मधु॑। मधु॑। मधु॑ ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वाहा मरुद्भिः परिश्रीयस्व । दिवः सँस्पृशस्पाहि । मधु मधु मधु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वाहा। मरुद्भिरिति मरुत्ऽभिः। परि। श्रीयस्व। दिवः। सꣳस्पृश इति सम्ऽस्पृशः। पाहि॥ मधु। मधु। मधु॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 37; मन्त्र » 13
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    भावार्थ -
    हे राजन् ! विद्वन् ! तू ( मरुद्भिः ) प्रजागणों और हे वीर सेनापते ! तू शत्रुओं को मारने वाले वीर सैनिकों से (परिश्रीयस्व) सब तरफ से आश्रय बन । वे तेरा आश्रय लें । तु उनके द्वारा पृथ्वी का भोग कर । तू इस राष्ट्र को (दिवः ) सूर्य के समान तेजस्वी राज गण के (संस्पृशः) तीक्ष्ण स्पर्श करने वाले कष्टदायी कारण से ( पाहि ) रक्षा कर और (मधु मधु मधु) कर्म, उपासना और ज्ञान, इनका सेवन कर और इसी प्रकार शरीर में स्थित प्राण, उदान, व्यान के समान तीनों ब्रह्मबल,. क्षात्रबल और धनबल प्रदान कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विद्वान् । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥

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