Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 11
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - विराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
    0

    दि॒वि धा॑ऽइ॒मं य॒ज्ञमि॒मं य॒ज्ञं दि॒वि धाः॑।स्वाहा॒ऽग्नये॑ य॒ज्ञिया॑य॒ शं यजु॑र्भ्यः॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वि। धाः॒। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। दि॒वि। धाः॒ ॥ स्वाहा॑। अ॒ग्नये॑। य॒ज्ञिया॑य। शम्। यजु॑र्भ्य॒ इति॒ यजुः॑ऽभ्यः ॥११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवि धाऽइमँयज्ञमिमम्यज्ञन्दिवि धाः । स्वाहाग्नये यज्ञियाय शँयजुर्भ्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दिवि। धाः। इमम्। यज्ञम्। इमम्। यज्ञम्। दिवि। धाः॥ स्वाहा। अग्नये। यज्ञियाय। शम्। यजुर्भ्य इति यजुःऽभ्यः॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    भावार्थ -
    हे विद्वन् ! ( इमम् यज्ञम् ) इस राष्ट्ररूप यज्ञ, प्रजापालक राजा को (दिवि धाः) राजसभा के आधार पर धारण कर ( इमं यज्ञम् ) इस प्रजापालक सबके संगत कराने में कुशल पुरुष को (दिवि) उत्तम ज्ञान में या राजसभा के ऊपर सभापति रूप से स्थापित कर । (यज्ञयाय) यज्ञ; राष्ट्रव्यवस्था के हितकर, उसको संभालने में योग्य (अग्नये ) ज्ञानवान्, अग्रणी तेजस्वी पुरुष को (स्वाहा) उत्तम अधिकार, मान और आदर एवं अन्नादि पदार्थ प्रदान करो। (यजुर्भ्यः) अन्य उसके साथ राज्यकार्यों में सहयोग देने वाले शासक जनों को भी ( शम् ) शान्तिमुख प्राप्त हो अथवा (यजुर्भ्यः) यजुर्वेद के मन्त्रों में प्रतिपादित क्षत्रियोचित राज्य कर्मों से शान्त स्थापित करो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यशः । विराडुष्णिक् । ऋषभः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top