यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 10
ऋषिः - आङ्गिरस ऋषयः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - निचृत् आर्षी जगती,साम्नी त्रिष्टुप्
स्वरः - निषादः
1
ऊर्ग॑स्याङ्गिर॒स्यूर्ण॑म्रदा॒ऽऊर्जं॒ मयि॑ धेहि। सोम॑स्य नी॒विर॑सि॒ विष्णोः॒ शर्मा॑सि॒ शर्म॑ यज॑मान॒स्येन्द्र॑स्य॒ योनि॑रसि सुऽस॒स्याः कृ॒षीस्कृ॑धि। उच्छ्र॑यस्व वनस्पतऽऊ॒र्ध्वो मा॑ पा॒ह्यꣳह॑स॒ऽआस्य य॒ज्ञस्यो॒दृचः॑॥१०॥
स्वर सहित पद पाठऊर्क्। अ॒सि॒। आ॒ङ्गि॒र॒सि॒। ऊर्ण॑म्रदा॒ इत्यूर्ण॑ऽम्रदाः। ऊर्ज॑म्। मयि॑। धे॒हि॒। सोम॑स्य। नी॒विः। अ॒सि॒। विष्णोः॑। शर्म॑। अ॒सि॒। शर्म॑। यज॑मानस्य। इन्द्र॑स्य। योनिः॑। अ॒सि॒। सु॒स॒स्या इति॑ सुऽस॒स्याः। कृ॒षीः। कृ॒धि॒। उत्। श्र॒य॒स्व॒। व॒न॒स्प॒ते॒। ऊ॒र्ध्वः। मा॒। पा॒हि॒। अꣳह॑सः। आ। अ॒स्य। य॒ज्ञस्य॑। उ॒दृच॒ इत्यु॒त्ऽऋचः॒ ॥१०॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्गस्याङ्गिरस्यूर्णम्रदा ऊर्जं मयि धेहि । सोमस्य नीविरसि विष्णोः शर्मासि शर्म यजमानस्येन्द्रस्य योनिरसि सुसस्याः कृषीस्कृधि । उच्छ्रयस्व वनस्पत ऊर्ध्वा मा पाह्यँहस आस्य यज्ञस्योदृचः ॥
स्वर रहित पद पाठ
ऊर्क्। असि। आङ्गिरसि। ऊर्णम्रदा इत्यूर्णऽम्रदाः। ऊर्जम्। मयि। धेहि। सोमस्य। नीविः। असि। विष्णोः। शर्म। असि। शर्म। यजमानस्य। इन्द्रस्य। योनिः। असि। सुसस्या इति सुऽसस्याः। कृषीः। कृधि। उत्। श्रयस्व। वनस्पते। ऊर्ध्वः। मा। पाहि। अꣳहसः। आ। अस्य। यज्ञस्य। उदृच इत्युत्ऽऋचः॥१०॥
विषय - बल, शरण, और कृषि की प्रार्थना ।
भावार्थ -
हे (अंग़िरसि) अंगिरस् आदित्य या अग्नि से उत्पन्न होने वाली पृथिवी ! तू (ऊर्णम्रदा उर्ग् असि ) ऊर्णे = आच्छादन, अन्धकार का नाश करने वाली, प्रकाशरूप ( उर्ग् असि) बलरूप है । अथवा उनके समान कोमल, होकर भी बड़ी बलवती है । तू ( मयि ऊर्जं धेहि ) मुझ में बल या अन्नादि पदार्थ प्रदान कर । तू ( सोमस्य ) सर्वप्रेरक आदित्य या पर्जन्य की (नीवि: ) अच्छी प्रकार लाकर एकत्र करने वाली ( असि ) है । (विष्णो ) व्यापक जल का ( शर्म्म असि ) शरण, आश्रय स्थान है और (यजमानस्य शर्म ) यज्ञ करने वाले पुरुष या इस महान् जलवृष्टि द्वारा अन्नोत्पादन करने वाले यज्ञपति का भी ( शर्म ) शरण या आश्रय है । ( इन्द्रस्य योनिः असि ) हे सूर्य के किरण ! ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यशील मेघ की तू ( योनिः ) उत्पत्ति स्थान है । हे पुरुष ! तू हमारे ( कृषी: ) खेतियों को ( सुसम्याः ) उत्तम सस्य से युक्त ( कृधि ) कर । हे ( वनस्पते ) वनस्पते ! सेवन करने योग्य जल आदि पदार्थों के पालक पर्जन्य । तू ( उत् श्रयस्व ) ऊपर आ । ( ऊर्ध्वः ) ऊंचा होकर ( अस्यै यज्ञस्य उदृचः आ ) इस यज्ञ की समाप्ति पर्यन्त ( अंहसः पाहि ) पाप से रक्षा कर ।
मेखला पक्ष में- हे अंगिरसि, विद्वानों की रची मेखले ! तू बलरूप है, मुझे बल दे । सोम-ब्रह्मचारी या वीयें की रक्षिका ग्रन्थि है ।| विष्णु व्यापक वेद और यजमान आत्मा की शरण है । इन्द्र=आचार्य की 'योनि' उत्पादक है । हे दण्ड ! तू आ । मेरे व्रत की समाप्ति तक तू मेरी रक्षा कर ॥
शिल्पविद्या पक्ष में-हे वनस्पते विद्वन् ! जो ( अंगिरसी) विद्वानों द्वारा उत्पादित ( उर्णम्रदा ) प्रकाशकारिणी ( ऊर्क् ) अन्नोत्पादक बलवती शिल्प विद्या है वह मुझे बल दे । वह ( सोमस्य नीविः ) नाना पदार्थों की आश्रय है । ( विष्णोः ) विद्वान् को सुखकारी है । ऐश्वर्यवान् होने का कारण है । उसके बल पर उत्तम सम्पन्न खेतियों को पैदा कर । हे विद्वन् ! तू स्वयं उन्नति कर । हमें पापफल दुःख से बचा । इस उत्तम यज्ञ की पूर्ति कर ॥
टिप्पणी -
१० -- ०ऊर्जं मेयच्छ्र । इति काण्व० । यज्ञो देवता । द० ॥ १ ऊर्गस्या
। २ उच्छ्रयस्व।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
आंगिरस ऋषयः। यज्ञो मेखला नीविः वासः कृष्णा विषाणा दण्डश्च यज्ञो वा देवता। (१) निचृदार्षी, निषादः, (२) साम्नी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
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