यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - आपो देवता
छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
1
आपो॑ऽअ॒स्मान् मा॒तरः॑ शुन्धयन्तु घृ॒तेन॑ नो घृत॒प्वः पुनन्तु। विश्व॒ꣳ हि रि॒प्रं प्र॒वह॑न्ति दे॒वीरुदिदा॑भ्यः॒ शुचि॒रा पू॒तऽए॑मि। दी॒क्षा॒त॒पसो॑स्त॒नूर॑सि॒ तां त्वा॑ शि॒वा श॒ग्मां परि॑दधे भ॒द्रं वर्णं॒ पुष्य॑न्॥२॥
स्वर सहित पद पाठआपः॑। अ॒स्मान्। मा॒तरः॑। शु॒न्ध॒य॒न्तु॒। घृ॒तेन॑। नः॒। घृ॒त॒प्व᳖ इति॑ घृतऽप्वः॒। पु॒न॒न्तु॒। विश्व॑म्। हि। रि॒प्रम्। प्र॒वह॒न्तीति॑ प्र॒ऽवह॑न्ति। दे॒वीः। उत्। इत्। आ॒भ्यः॒। शुचिः॑। आ। पू॒तः। ए॒मि॒। दी॒क्षा॒त॒पसोः॑। त॒नूः। अ॒सि॒। ताम्। त्वा॒। शि॒वाम्। श॒ग्माम्। परि॑। द॒धे॒। भ॒द्रम्। वर्ण॑म्। पुष्य॑न् ॥२॥
स्वर रहित मन्त्र
आपो अस्मान्मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु । विश्वँ हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि । दीक्षातपसोस्तनूरसि तन्त्वा शिवाँ शग्माम्परि दधे भद्रँवर्णम्पुष्यन् ॥
स्वर रहित पद पाठ
आपः। अस्मान्। मातरः। शुन्धयन्तु। घृतेन। नः। घृतप्व इति घृतऽप्वः। पुनन्तु। विश्वम्। हि। रिप्रम्। प्रवहन्तीति प्रऽवहन्ति। देवीः। उत्। इत्। आभ्यः। शुचिः। आ। पूतः। एमि। दीक्षातपसोः। तनूः। असि। ताम्। त्वा। शिवाम्। शग्माम्। परि। दधे। भद्रम्। वर्णम्। पुष्यन्॥२॥
विषय - आप्त जनों के कर्त्तव्य, दीक्षा और तप।
भावार्थ -
( अस्मान् ) हम (आपः) जलों के समान स्वच्छ ( मातरः ) ज्ञान करने हारे या माता के समान पालन करने वाले आप्तजन ( शुन्ध- यन्तु ) शुद्ध करें, जैसे जलधाराएं शरीर को शुद्ध करती हैं और माताएं अपने स्नेह और उपकार से हृदय के पापको नष्ट करती हैं वैसे ही आप्त ज्ञानी पुरुष हमें आचार में पवित्र करें । वे ( घृतवः ) घृत, दीप्ति या तेजोमय अंश से पवित्र करने वाले आप्त जन (नः) हमें अपने ( घृतेन ) घृत से जिस प्रकार शरीर के विष नाश हो जाते हैं उसी प्रकार ( पुनन्तु ) पवित्र करें। ( देवीः ) दिव्य गुणवाली माताओं, जल- धाराओं, नदियों के समान और देवियों के समान आप्त जन भी ( विश्वम् रिप्रम् ) समस्त पाप को (हि) भी ( प्रवहन्ति ) धो बहाते हैं । ( आभ्यः इत् ) इनसे ही ( आपूतः ) सब प्रकार से पवित्र होकर मैं ( उत् एमि ) उत्कृष्ट पदको प्राप्त होऊं । जैसे जलों से स्नान करके मनुष्य शुद्ध वस्र पहनता है, वैसे ही आप्त -जनों से अपने पाप से मुक्त होकर अपने शरीर और आत्मा को स्वच्छ कर लेता है । हे वासः ! वस्त्र के समान अच्छादक शरीर ! आत्मा के वासस्थान ! तू ( दीक्षातपसो ) दीक्षा अर्थात् सत्पथ पर हृढ़ता से रहने के उत्तम व्रतधारण और तपस्= तपस्या का बना ( तनूः असि ) शरीर है । ( तां ) उस (त्वा) तुझको ( शिवाम् ) कल्याणकारिणी ( शग्माम् ) सुखदायिनी, आरोग्य पवित्र को मैं ( भद्रं वर्णं पुष्यन् ) सुख- कारी, उत्तम वर्ण को उत्कृष्ट जीवन स्थिति को पुष्ट करता हुआ ( परिदधे ) धारण करूं । स्नान के बाद पुरुष जैसे दीक्षा के निमित्त विशेष स्वच्छ वस्त्र पहने उसी प्रकार दीक्षा और तप से शरीर को शुद्ध करके अपने जीवन को उच्च करे और ज्ञान की नदी रूप आप्तजनों के उपदेशों में स्नान करे॥
राजा के पक्ष में- आप्त पुरुष हमारे माता के समान पालक अपने तेज से हमें पापों से बचावे । मैं राजा उन आप्तजनों द्वारा शुद्ध पवित्र होकर उदय को प्राप्तहोऊं । इस तप से प्राप्त पृथिवी को अपने शरीर के समान धारण करूं और उत्तम वर्ण को पुष्ट करूं ॥ शत० ३ । १ । २।१०-२० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
आपो वासश्च देवताः । स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । अत्यष्टिर्वा छन्दः । धैवतः स्वरः ॥
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